काव्य संग्रह ' अमिट शब्द '

 .



     कविता : प्रेम 


    गोपियाँ नाची,

    ' राधा ' ने रास रचा 

    ' रुक्मणी ' का पल्लू बंधा   

    ' देवकी ' की गोद भरी 

    ' यशोदा ' की ममता महकी 

    ' नन्द बाबा ' की बगिया खिली

    ' सुदामा ' की भक्ति जगी

    मीरा ने त्यागा 

    धाम - विश्राम

    लगाई कंठ छवि-अभिराम

    पिया विष का जाम, 

    दिया प्रेम को अंजाम  

    Photo by Henry Be on Unsplash


     कविता : नियति जब पौ फूटेगी 


    जब पौ फूटेगी  

    पक्षी चहचहाएँगे

    सुख-कर आभा

    धूमिल दीवार फाँद कर

    चमचम करती 

    चांदी की तरह

    अंगना भर देगी,

    छिट पुट उजास

    अपना साज़ छेड़ेगा

    हम सुबह का गीत गाएंगे ।


    बादलों के टुकड़े जब

    भूल कर श्यामल रंग

    माल मणियोँ से जड़े 

    किसी राजा के 

    मुकुट जैसे जगमगाएंगें,

    उपजायेंगे ताज़ा उमंग

    हम सुबह का गीत गाएंगे ।


    थिरक थिरक कर उतरती ऊषा

    समतल धरा पर

    अपना व्यास फैलाएगी,

    मन के फफोले

    दर्द के शोले

    शीतल हो जाएंगे,

    उतर कर अन्तस में 

    मधुमय पराग

    अंतरंग हो जायेगा,

    हम सुबह का गीत गाएंगे


    वेरीनाग - सुता 

    शांत गंभीर

    धीमी गति से

    बहुत पास आकर

    मीठा मीठा गुनगुनाएगी, 

    लहराती बढ़ती नौकाओं संग

    क्रीड़ा करती मुस्कायेगी

    हम सुबह का गीत गाएंगे ।


    कुछ कहते से

    अधरों की कंपकंपाहट 

    उमंगों की आहट

    करेगीे प्रतीक्षा की इति,

    मधुर हास के लिए

    बांहें फैल जाएंगी

    हम सुबह का गीत गाएंगे ।


    अखरोट और बादाम के

    सफेदे और चिनार के

    अनार और खोबानी के

    उद्यान मनोहर,

    शहतूत और गिलास की

    सौंधी सौंधी महक से 

    जी बहलाएंगे

    हम सुबह का गीत गाएंगे ।


    आतंक की राह

    तंग पड़ जाएगी

    विस्फोट के शोलों पर

    शबनम की शीतलता

    अपनी पताका फहराएगी

    हम सुबह का गीत गाएंगे ।


    पेड़ पौधे हवा की गर्मी को

    सोखकर नम कर देंगे

    मदहोश पत्तों की लालिमा को

    ताज़ा करेगी सुगंधित समीर,

    महक से भर जायेगा

    वन और वातावरण 

    हम सुबह का गीत गाएंगे ।


     कविता : नियति 


    मैं 

    सूर्य पुत्री 

    निकलकर पर्वत श्रृंखलाओं से 

    लांगती हुई 

    पाषाण और झाड़ियों को

    आई झरने की तरह

    तुम्हारे इस लोक में, 

    भर दिए खेत-खलियान

    अमृत तत्व से 

    बनी जीवनदायिनी 

    सदियों से तुम्हारे लिए। 

    किंतु 

    पृथ्वी पुत्र तुम 

    मलिन-दूषित 

    कर के मुझे 

    रहे सक्रिय 

    मिटाने के लिए 

    मेरे अस्तित्व को,

    साधने को अपना स्वार्थ 

    भर दिया घुटन से 

    मेरे जीवन को 

    फिर भी मैं 

    बहती आई हूं;

    बह रही हूँ

    शिव की संगिनी होने का

    गौरव पाकर

    विष पीने की आदी हो गई हूँ।


     कविता : नीर नभ में 


    नींद नयन-सेज पर,

    बदल रही थी करवटें

    दुखी ह्रदय में स्वप्न,

    सहेज रहे थे सिलवटें।

    तपन भाप बनकर 

    गगन की ओर बढ़ चली,

    संग शीत लहर के,

    टकराई और बरस पड़ी।

    चारो ओर शोर था,

    अंकुर एक नया खिला,

    रिमझिम बरसात में,

    संगीत है नया जगा।

    नेह-कलश को डुबो दिया, 

    मैंने जब जलद-जल में,

    चुपके से आकर बदली,

    ले गई नीर नभ में।


     कविता : दिशाहीनता 


    ऋतुराज का स्वागत करें

    उल्लास नयनों में भरें ।

    धरती का आवरण सजा

    रंग भरा दिशाओं ने

    पवन में मादकता भारतीं

    नवल कोंपलें चटक उठीं

    धुप के मीठे स्पर्श से

    स्फूर्ति पाता जल प्रवाह ।

    बलखाती पगडंडी से

    उतरती मस्तानी बयार

    संग संग डोल रही

    बलखाती मेघों की कतार   

    उन्मुक्त गगन में विहंग

    झूम झूम करते विहार

    सुमन, कली और डाल को

    जड़ चेतन कंद मूल को

    समूल संवारता है बसंत ।

    क्षितिज में रंग भरे

    अंचल से इंद्रधनुष के

    प्रातः के प्राण खिले

    संध्या भी सिन्दूर लिए

    रत रहती राग के संग

    स्वप्न करते निंद्रा भांग

    दृष्टि हो खुली या बंद

    दिशा दिशा बाँटे आनंद ।

    ऋतुराज का स्वागत करें

    उल्लास नयनों में भरें ।


     कविता : क्या दूँ ऋतुराज ? 


    आए हो सम्राट ऋतुराज,

    क्या दूँ- नज़राना आज?


    सिर पर आकाश भारी,

    धरती की सूखी क्यारी।

    वितस्ता व्यथा से भर आई,

    चिनार से रूठी शहनाई।


    डालियाँ सब सूख गईं,

    कलियाँ दूर छूट गईं। 

    पत्ते बिछड़ कर उड़ दिए

    पुष्प मुरझा कर गिर लिए


    तने पर झुर्रियाँ दिख रहीं, 

    जड़ों में दीमक पल रहीं।

    ऐसा एक कानन हूँ,

    जिससे रूठे सारे साज।


    आए हो सम्राट ऋतुराज,

    क्या दूँ- नज़राना आज?


     कविता : आशा 


    आकाश में जब

    मनभावन धूप

    और रिमझिम बूँदें

    संग संग खेलतीं,

    रच जाता

    सतरंगी इंद्र-धनुष,

    मोहित करता

    चंद पलों के लिए,

    जब

    आभास होता

    कभी इसके अस्तित्व का,

    कभी तिरोहित होने का,

    और

    इस लुका छिपी की क्रीडा में,

    छटपटातीं नज़रें

    डूबकर

    किसलय में

    बार-बार 

    भ्रमित होतीं।


     कविता : आँसू 


    जो जैसी बीती है हम पर

    आँसू ही कह सकें कहानी । 


    नन्ही ये बूंदे नयनों की

    है प्रतीक टूटे सपनों की

    न समझो इनको खारा पानी

    आँसू ही कह सकें कहानी । 

     

    अपने आंसू कहें हर बार

    किया जीवन से इतना प्यार

    बना पयालन प्रेम निशानी

    आँसू ही कह सकें कहानी । 


    निष्ठुरता का मानी सावन

    रहा नहीं अब मन भावन

    देता जाता व्यथा नमानी 

    आँसू ही कह सकें कहानी । 


    जीवन बनता जाता इक वन

    पत्तों से जड़ते जाते क्षण

    हर डाली है याद पुरानी

    आँसू ही कह सकें कहानी । 


    अंबर के घेरे का सब जल

    है बरस - बरस करता जल - थल

    पास नहीं बगिया पहचानी     

    आँसू ही कह सकें कहानी । 


    भीगी पलकें कहतीं  हर पल

    हम को लेके घर को चल

    देखें फिर से बहार सुहानी 

    आँसू ही कह सकें कहानी । 


    जो जैसी बीती है हम पर

    आंसू हे कह सके कहानी

    न समझो इनको खारा पानी

    आँसू ही कह सकें कहानी ।


    जो जैसी बीती है हम पर

    आँसू ही कह सकें कहानी ।


     कविता : आकांछा 


    मैं कलाकार नहीं

    बिखरा कर रंग

    अर्थ दूँ,

    सीधी तिरछी रेखाओं को

    जीवन की कामनाओं को।

    मैं कवि नहीं

    शब्दों और अर्थों की 

    सेना व्यवस्थित करके, 

    मर्म को सेहलाऊँ 

    भ्रम के गीत गाऊं।

    चिंतन पर 

    चिंता की

    लपेट कर चादर,

    परतों में छिपी

    मन की ग्रंथियां

    है मेरे पास। 

    मैं तो आकांछा 

    न आदि क्या ज्ञान

    न अंत ही ज्ञात,

    एक ही परिधि की

    परिक्रमा में हूँ रत

    कालान्तर से

    कालान्तर तक। 


     कविता : अध्यापक 


    रात के सिर पर 

    अटका लैंप 

    शोर को समेटे 

    अँधेरे के लपेटे 

    रात दिन 

    आंधी तूफान

    यर्हां तक कि

    धुआं उगलते हुए

    शहर का प्रदूषण सहते

    सड़कों 

    फुटपाथों और शहरियों की

    विकृत मानसिकता को

    भोगते,

    प्रकाश की चादर औढ़ाकर 

    पथिक को उसका

    पथ इंगित करता

    स्वयं 

    पल पल अपनी

    जीर्णता को

    पहनता, खाता और औढ़ता 

    परन्तु

    कहलाता फिट भी लैंप।


     कविता : यह कैसा समां? 


    यह कैसा समां यह कैसा नज़ारा ? 

    सागर में लहरें गिर गिर कर उठतीं,   

    उसी में बिछड़तीं उसी में मिलतीं। 

    खामोश देखता रहता किनारा,

    येह कैसा समां यह कैसा नज़ारा?


    मिट्टी है सोना, सोना है मिट्टी,

    यह उक्ति हैं गूंजे बस्ती बस्ती। 

    तृष्णा ने अपना आँचल पसारा,

    यह कैसा समां यह कैसा नज़ारा?


    पानी में रहकर भी मीन प्यासी, 

    उसी से मिली है उसे उदासी। 

    फिर भी कहे यह मेरा सहारा,

    यह कैसा समां यह कैसा नज़ारा?


    सहता पेड़ कितने आंधी तूफान,

    तपन में डटता सीना तान।

    सुमन ने पवन को महक से संवारा,

    यह कैसा समां यह कैसा नज़ारा?


    जमाना पिरोये रिश्तों के मोती, 

    मुहब्बत हुई सिमट करके छोटी।

    यह सारा आलम तन्हा बेचारा,

    यह कैसा समां यह कैसा नज़ारा?


    तड़प तड़प कर कहे तन्हाई,

    नहीं संग अपनी भी परछाई।

    नयन नीर से जग को दुलारा,

    यह कैसा समां? यह कैसा नज़ारा?


     कविता : उदासीनता 


    चिंता बार बार

    डसती रही,

    विचारों को खंडित

    करती रही,

    इन्द्रियों का नृत्य

    सिर नोचता रहा,

    चारों ओर

    अज्ञान के मोटे

    काले पर्दों से  

    माहौल धुंधलाता रहा,

    निराशा पंख संवारती रही ।

    और  

    मेरी गिरवी आत्मा

    मुक्ति के लिए

    छटपटाती रही ।


     कविता : उजास 


    बैसाखियों की सहारे

    चलने से अच्छा है,

    घुटनों के बल चलना है; 

    क्योँकि इसमें

    खट खट नहीं,

    विश्वास है।


    रात के अँधेरे में

    भटकने से अच्छा है,

    धीर धर कर 

    दिन की 

    प्रतीक्षा करना;

    क्योँकि इसमें

    सिर्फ आस नहीं.

    उजास है।


     कविता : किन्तु 

    मौसम बदला

    समां बदला

    आसमान ने 

    रंग बदला,

    हवा बही

    छायी घटा

    बिजली चमकी

    बारिश बरसी,

    जन्मीं संज्ञाऐ नई नई,

    कोई ढूंढ रहा था

    समानार्थक शब्द

    और कोई विपरीतार्थक

    जब वातावरण 

    मूक दृष्टा बनकर

    निगल गया

    सरे दृश्य

    किन्तु

    एक अंकुर

    फूटने की ध्वनि से

    विचलित हुआ

    सहलाता रहा

    गतिमान जिज्ञासा

    के उस पल को

    जिसने

    बहार भीतर

    लाई थी हलचल।


     कविता : मानवता 



    धूप को कोहरा

    अपने में लपेट लेता,

    वृक्षों को मेघ ढक लेता

    धूल आकाश पर चढ़कर 

    अपनी मर्यादा का उलंगन करती,

    वर्षा अपनी बाढ़ से

    नदी नाले भर देती

    और

    सूरज

    हर दिशा में 

    निबांध निरन्तर

    प्रकाश लुटाता रहता।


     कविता : चाँद 


    धीमे - धीमे रैन घिर आई

    संग रैन के चांदी मुस्काई

    बुद्धि में चंचलता समाई

    रह रह कर आँख ललचाई

    तब दृष्टि चाँद पर पहुंची

    किस नाम से इसे पुकारूँ?


    कह दूँ इसे चंद्र या प्रियतम

    देख जिसे भूले सारे गम

    रात रात भर चमके चमचम        

    रुकने का नाम न लेते कदम

    हँसता ही दिखता है हरदम

    किन भावों से इसे संवारूं,

    किस नाम से इसे पुकारूं? 


    ममता का यह अनूठा चित्र

    है माया इसकी बड़ी विचित्र

    लगे स्वभाव से शिशु सा पवित्र

    मानो है यह सबका मित्र

    सुखकर सुंदर आकर्षण से

    भंडार भरा है क्षण क्षण इसका

    कैसे मन की बात उबारूं,

    किस नाम से इसे पुकारूं?


     कविता : भावनाएँ 


    सागर से

    उठकर लहरें

    बार - बार 

    चट्टानों से टकराकर

    आहत होतीं 

    और

    विलीन होतीं 

    वेदना के भंवर में,

    स्थिर - अवाक साहिल

    मर्यादा का

    आँचल पकड़ कर

    रखता सुरक्षित 

    इस सागर को।


     कविता : रिश्ते 


    रिश्तों का यह दौर

    रिश्तों का यह शोर

    गूंजता चारों ओर ;

    रिश्ते जो चलते 

    रिश्ते जो पलते

    रिश्ते जो रिसते 

    रिश्ते  जो पिसते 

    रिश्ते  जो घिसते 

    वह मात्र रिश्ते है ;

    रिश्ते जो महकाए 

    रिश्ते जो संभाले 

    रिश्ते जो उभारे

    रिश्ते जो संवारे

    रिश्ते जो निखारे 

    वही मात्र रिश्ते हैं।


     कविता : शबनम - सा मधुमास 


    जिंदगी का हर श्वास होता आखिरी, 

    हर कदम का उल्लास होता आखिरी।


    पलता है हर ज़ख्म इक छाँव के तले,

    हर बार यह एहसास होता आखिरी।


    मन बुनता रहे जाल उलझता रहे, 

    पल पल उम्र का ह्रास होता आखिरी।


    हर पल का सफर चाहता इक डगर,

    रास्ते का हर मोड़ होता आखिरी।


    मुखौटों के धनियों की देखी ऐसी रील,

    शबनम - सा मधुमास होता आखिरी।


     कविता : आ जाओ रे सुख-क्षण 


    तक तक हारी चिर प्यासी अखियां

    अब तो आ जाओ रे सुख - क्षण।


    रात अंधेरी बढ़ने लगी

    उजले दिन की अभिलाषा जगी

    पल - छिन जैसे नीरव निर्जन

    समझौतों की डोरी के बंधन

    दुष्कर साध्य हुआ जीवन

    अब तो आ जाओ रे सुख - क्षण।


    तुम बिन व्यथा समझेगा कौन

    विरही - धन रहने देते न मौन

    दर्द उमड़ता जैसे हो तूफान

    छूटे नीड़ के ध्यान में गान

    उहापोही भोगे दिल की धड़कन 

    अब तो आ जाओ रे सुख - क्षण।


    बत्तियां जी की किसे सुनाऊँ

    किसके दर की आस लगाऊँ

    तुम बिन नैया से दूर किनारा

    भंवर में घूमे मन बेचारा

    तुम्ही हो केसर तुम्ही चन्दन

    अब तो आ जाओ रे सुख - क्षण।


     कविता : कब तक 


    करके लोकतंत्र को स्वीकार 

    रहता है इंतजार 

    अब सत्ता को कौन सा दल 

    करके हरण 

    जमाएगा अपने चरण; 

    सत्तारूढ़ 

    लेकर सदन की शरण  

    क्या गुल खिलाएगा 

    बेईमानी और ईमानदारी की घर्षणा

    अपने को 

    बेगुनाह साबित करने के लिए  

    कैसे छटपटाएगी

    खून के आंसू बहाएगी;  

    भ्रष्टाचार किन झलकियों से

    हो कर प्रभावित 

    शोषण और शोषित की लीला से 

    करके मनोरंजन 

    निकलेगा कौन सा फरमान; 

    दांव पर लगाकर हमारा जीवन 

    अय्यारी से नचवाएंगे

    सिक्कों की झंकार पर 

    कठपुतलियों की तरह 

    और हम 

    अपने ही तमाशबीन हो कर 

    अपने ही हाथों को 

    स्वयं पीट-पीट कर 

    बजाएंगे ताली 

    कब तक।


     कविता : सपनों की कैद 


    दर्द बनकर

    जीवन में समाते गए तुम 

    सहलाती रही । 


    बाँहों में भरना चाहा

    सरकते गए तुम

    अपनी ही परिधि में

    कैद हो गई ।


    नयनों में छिपाना चाहा 

    मन में रखना चाहा

    तुम धड़कनें गिनते रहे

    व्यथा में

    डूबकर रह गई । 


    सासों में बसाना चाहा

    शूल बन कर चुभते रहे

    आहों में

    बंद हो गई 


    यादों के साये में

    हर पल साथ रहे

    तन्हा रह कर

    सपनों में 

    कैद हो गई ।


     कविता : जहाँ पत्थर थे बेशुमार 


    फरियाद लेकर

    चल पड़े दरबार,

    पग पत्थरों से टकराकर

    आरज़ू के दम पर

    मंज़िल कुरेदने लगे

    और

    रास्ता मापने लगे।


    लथपथ मानवता देखकर

    चौंक उठी विह्वल चेतना,

    कंकरों के फर्श पर

    जड़ - पाषाण

    अपने ही धड़ से

    आहत हो रहे थे

    व्यथा  ढ़ोह रहे थे।


    बढ़ते कदम 

    सहसा रुक कर

    ढूढ़ने लगे दरबार

    वहाँ

    जहाँ पत्थर थे बेशुमार।


    कविता : प्रकृति


    मेघ गरजता

    दिल देहलाता,

    आकाश बरसता

    लाता बाढ़,

    तूफान उखाड़ता

    हरे भरे वृक्ष,

    आंधी अंधड मचाती

    करती भयभीत,

    धरती सब सह जाती

    अपने में सब सोख लेती।


    कविता : मिलन के पल


    मिलन के पल

    ज़बां खामोश,

    नज़रें बेबस,

    सासें गतिमान

    ज़िंदगी कसी हुई।


    तन बेसुध,

    अरमान चंचल,

    यौवन विह्वल,

    आँखे रमी हुई।


    ऋतु की रुनझुन

    सपनों के हलचल

    भीड़ में खोई हुई।


    कविता : निवेदन - यादों से


    सुख - सम्पत्ति

    वैभव - विलास

    आस - विश्वास

    सब पर

    अधिकार तुम्हारा

    किन्तु मुझसे

    बैसाखियाँ

    तनहाई की

    मत छीनो

    कुछ पल

    जीने दो।


    कविता : दूर है क्यों


    जिधर देखूँ उधर है तू,

    सुमन में जैसे खुशबू।


    सुबह है नूर तुम्हारा,

    हर शाम इक जलवा।     


    धरा का फैला विस्तार,

    गगन का मुक्त संसार।


    रोम रोम पर तेरा अधिकार

    फिर भी दूर है क्यों?


    कविता : प्रेरणा


    हाथ पाँव

    जब शिथिल हो जाते

    तुम चेतना 

     मुझमें  डाल देना चाहते

    लेकिन

    ऐसा न हो पता।


    सरकती हुई अचेतनता  

    मुझे 

    तुमसे छुड़ा लेती   

    और

    मैं हताश

    पथराई दृष्टि से

    अतीत को वर्तमान में

    खोजते खोजते

    उस परिस्थिति में आ गिरती

    जहाँ तुम

    फिर रोशन करते

    दबी हुई प्रीत

    किन्तु मैं

    हिम सी निष्क्रिय

    भोगती

    मात्र

    सिकुड़न और सीलन।


    कविता : विडम्बना


    मन सरपट

    भागता रहता।

     

    विचारों की बैसाखियों से

    रच देता महल चौबारे,

    भूल कर 

    भंवर और किनारे

    विचरता तूफानों के सहारे

    सेहता थपेड़े

    बार-बार।


    यह जानकर भी

    गगन का बिखरना

    धरा का सिमटना

    पवन का रुकना

    अग्नि का शीतल होना

    जल का थमना

    जितना असंभव है

    कर्मफल का स्वाद

    उतना ही निश्चित है।


    मन सरपट

    भागता रहता।


    कविता : प्रश्‍न


    असीम आकाश

    अछोर धरा के

    अंतराल में

    प्रकृति के प्रश्‍नों  का

    समाधान खोजता

    प्राकृतिक संतापों से

    सुरक्षित रखने के लिए

    सतत् सक्रिय।


    प्रयत्नशील वृक्ष

    मूढ़ प्रहारों से

    आहात होकर

    गिर जाता चरणों में

    यह इसकी उदारता है

    या

    क्षमा याचना।


    कविता : प्रीत की ज्योति


    मौसम ने ली अँगड़ाई।

    धरा ने ओढ़ी हरियाली,

    पवन की तान ने

    वृक्षों की नींद चुराई,

    रिमझिम बूँदों ने 

    सूखे पत्तों की तपन बुझाई,

    सिमट सिकुड़ के बैठी -

    कुम्हलाती आशा ने

    प्रीत की ज्योति जगाई।


    कविता : वे कदम


    संग मौसम के न बदलेंगे हम,

    कभी चाहत तेरी न होगी कम । 


    तुम को बेदर्द बनाया दिल ने,

    दर्द सहने का हम में है दम ।


    दिल में आग है न ही शोले,

    बुझ गए है तेरी चाहत में हम


    चल के आये थे जो दूर से कभी,

    रुकी नज़रों में बस रहे वे कदम ।

    कविता : अमिट शब्द


    मैं बिक गया

    और

    कोई मोल पा गया,

    नियति की इस उहापोह में

    सब डूबता ही गया,

    याद आया

    शैशव काल

    जब उठने और

    दौड़ने के लिए था

    प्रयत्नशील 

    गिर गिर कर।


    तब और अब

    दो भिन्न शब्द

    पूर्ण सवतंत्र।


    अब हाथों की गांठे

    मोटी होकर

    सख्त हो गई

    आकार बौना हो गया

    अंजुली के स्थान पर

    केवल छाले रह गए।


    मैं आज भी खोज रही हूँ

    उस कोमलता को

    जिसने मेरे कोरे कागज़ पर

    मूक भाषा में मढ़ दिए

    अमिट शब्द

    जो ज़िंदगी के अर्थ की

    पहचान करा गए।


    कविता : ख़राब मौसम


    मेघों की गर्जन से

    सहम गए 

    पेड़ पौधे,          

    भयभीत हो गए

    पुष्प

    त्रस्त हो गयी कलियाँ

    सिकुड़ गए ठूंठ

    याचक दृष्टि

    प्रश्न बनकर

    टिक गई

    आकाश की ओर

    बहुत दूर था

    जिसका छोर।


    बरसात हुई

    पक्के छत्त धुल गए

    कच्ची दीवारों से

    रिसने लगा गारा

    झोपड़ियों में

    कंपकंपी होने लगी,

    तूफान था

    की जैसे कुछ  देखा नहीं

    आंधी थी

    कि जैसे

    कुछ सुना नहीं

    किन्धरती

    कई घूंट

    एक साथ पी रही थी

    और थी कार्यरत निरन्तर

    बाढ़ को रोकने के लिए।


    कविता : शीशा


    अपने अस्तित्व की

    पहचान को मिटाकर,

    आईना बनकर 

    मान बढ़ाता हूँ;

    सजाकर, संवाद कर,

    प्रतिबिंब प्रतिरूप तुम्हारा,

    आश्वस्त करता हूँ।

    मेरे होने से

    कई परतों के नीचे,

    छुपा देते हो तुम

    अपनी मलिनता

    और इठलाकर,

    अपने लिपे पुते सवरूप से

    फेंक देते हो मेरी ओर

    वक्र मुस्कान;

    झुठलाती है जो मेरे

    पारदर्शी अस्तित्व को

    और दर्शाती है,

    तुम्हारा मिथ्या अहंकार;

    अपनी इस गति पर

    शक्ति बटोरता हूँ

    तो अदृश्यभाग

    कराह उठता है;

    जरा संभल कर,

    वरना

    टूटा शीशा 

    बन जाता है नश्तर।


    कविता : उलझन


     विद्यालय से मिली छुट्टी,

    समस्याओं की खुली गठरी।

    कई विषयों का मिला काम,

    पहले दूँ किस को अंजाम?

    गणित का आज बाजार, 

    चलता इससे व्यापार। 

    होगा फार्मूला जब याद, 

    जीवन होगा तभी आबाद।

    विज्ञान विशिष्ट ज्ञान है,

    प्रकृति के इस में प्राण है। 

    इससे करके पहचान है, 

    बन सकते हम महान है।

    इतिहास से है अतीत, 

    पूर्वज बन जाते मीत। 

    सुनते आजादी का गीत, 

    देते हमको नई सीख। 

    सारी धरती गोल है,

    सिखाता हमें भूगोल है। 

    दिशाओं का देता ज्ञान, 

    मौसम का यह फरमान।

    संस्कृत से सभ्यता,  

    इसमे नीतियों की गहनता। 

    संस्कारों की यह खान, 

    सुरक्षित रखती हमारी आन। 

    हिंदी राष्ट्र की भाषा है, 

    मैत्री के इस से आशा है। 

    भाषा से मिलता है ज्ञान, 

    विश्व से हो जाती पहचान।


    कविता : किस्मत की यह कैसी रेल


    छुटियाँ मुझे मिली माँ, 

    खेलने मुझे दे दो माँ

    छुट्टी की यह पहली भोर

    नाच उठा है मन का मोर   

    लेकर पतंग और डोर

    चाहूं मैं गगन का छोर

    आँखोंवाली पतंग है मेरी  

    मचाना चाहूं खूब शोर 

    छुटियाँ मुझे मिली माँ

    खेलने मुझे दे दो माँ

    लेकर बस्ता कंधे पर

    पसीने से हो जाता तर

    याद तब मुझे आता घर 

    नयन अश्रुओं से जाते भर 

    रोने से भी लगता डर

    छुपे उनको पी जाता

    छुटियाँ मुझे मिली माँ

    खेलने मुझे दे दो माँ

    अस्सेम्ब्ली की जब बजती घंटी

    होती है तब कठिन घड़ी

    कमीज़ नहीं होती धुली 

    जूतों पर होती धूल चढी

    नाखूनों में मैल जमी

    घबराहट से हो जाता विकल

    छुटियाँ मुझे मिली माँ

    खेलने मुझे दे दो माँ

    घर पहुँचता थका हरा

    लेकर काम ढेर सारा

    देती हो एक ही नारा

    कार्य ख़त्म करो सारा

    मैं एक अकेला बिचारा 

    लेता कुंजी का सहारा

    छुटियाँ मुझे मिली माँ

    खेलने मुझे दे दो माँ

    परीक्षा मुझको सताती है

    नित्य नए रूप दिखती है

    रातूं देर तक जगती है

    मन को मेरे नहीं सुहाती है

    चैन कोसोँ दूर भागती 

    किस्मत की यह कैसी रेल?

    छुटियाँ मुझे मिली माँ

    खेलने मुझे दे दो माँ


    कविता : माना मैं चट्टान हूँ


    माना मैं जड़ हूँ 

    चट्टान सी अटल 

    लक्ष्य है शिखर

    अस्तित्व निडर

    फिर भी

    तूफानों से भिड़ती

    बाढ़ में बह जाती हूँ,

    माना मैं चट्टान हूँ।


    वक्ष मेरा चीर कर

    उगते काई और शूल

    साहस के सहारे

    खड़े वृक्ष मतवाले

    गिर जाने से इनके

    आँधी सी लुढ़क जाती हूँ, 

    माना मैं चट्टान हूँ। 


    मेरा अस्तित्व टूटा

    जो गई दीवार खड़ी

    मसलने पर

    धरती मरुस्थल हुई

    वन्द्या जग के साँसों मैं

    प्राणहीन हो जाती हूँ, 

    माना मैं चट्टान हूँ। 


    कविता : और मेरी आत्मा


    उन्मुक्त कानन में

    विचरते विहंगों के

    गीतों से होकर

    भाव विभोर,

    थिरक-थिरक कर

    कल-कल की तान पर

    स्वच्छ सुगंधित बयार 

    बंद दरवाज़े से

    नज़रें बचाकर

    खुली खिड़की से

    झाँक न सकी

    परदे लटक रहे थे

    मानसिक स्वर भटक रहे थे,

    और मेरी आत्मा

    हताश हुई  

    रोशनदान पर

    खड़ी हाँफती

    देख रही थी

    दुबके हुए शिशु के

    बिखरे हुए खिलौने।


    कविता : थमने न दो


    बहती जलधार मंज़िल तक जाएगी,

    ठहरे पानी पर काई जम जाएगी ।


    नाचो न बिन लय ताल के,

    नूपुर टूटकर बिखर जाएगी ।


    थमने न दो तूफानों को,

    लहरें मन में विलीन हो जाएँगी ।


    कविता : पहेली


    गुम बचपन,

    चुप जवानी 

    खामोश नज़रें

    नभ को देखें ।


    मंज़िल तक

    चौराहे अनेक

    नज़र नज़र में

    उलझा विवेक ।


    व्याथित हृदय

    घुटता रहता 

    अरमानों की उलझन

    सहता रहता ।


    कच्चे रिश्ते

    पक्के रिश्ते

    बनते पहेली 

    रहते रिसते ।


    कविता : मृग - तृष्णा


    देर से 

    साथ चलने का 

    वचन दे कर 

    कदम से कदम मिलाती

    झूझती - सी जिन्दगी

    कह रही:

    कहाँ जाते हो

    यह दुनिया नहीं

    भ्रम का जाल है

    जहाँ बंद आँखों में 

    सपने पालते हैं

    और सपने

    सपनों को छलते हैं ।


    कविता : असमर्थता


    बहुत बार हम

    लटके सूली पर

    लेकिन

    मसीहा बन न सके,

    रखते थे जुबां 

    किन्तु

    कुछ कह न सके,

    फैलाये पंख

    उड़ 

    उड़ान भर न सके, 

    छिद्रों से भरी नौका थी

    पार ला न सके ।


    कविता : क्षणिका


    ज़िंदगी पुस्तक के

    पृष्ठों का हिसाब 

    शब्द बेहिसाब

    आदि पृष्ठ

    विषय सूची

    अंतिम 

    इति का सूचक । 


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