.
१.
पतंग उड़े
जहाँ तक डोर हो
जीवन सार ।
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२.
तुम्हारे गीत
गुनगुनाते रहे
सुना न सके ।
३.
बढ़ते पग
दूरी माप सकते
रुके क्या करे !
४.
राखी पहने
कलाई मुस्काई
मन पलायित ।
५.
मेरे धागों को
तुमने उलझाया
दे दी नग्नता ।
६.
मुखौटों पर
मजबूर मुस्कानें
मन आहात ।
७
कैद हुआ है
रेशम का कीड़ा तो
किसकी भूल !
८.
पत्थर क्या है
लोहा भी पिगलेगा
आग चाहिए ।
९.
जग की रीत
जानते सब ही हैं
निभाता कोइ ।
१०.
आश्रित जग
अनिश्चित क्षणों पे
फिर भी होड़ !
११.
एक ही राग
पिक ने आलापा जो
तो रस भरा ।
१२.
सूने घर में
वेदना की गूंज है
तन्हाई बोली ।
१३.
झुकना पड़ा
नभ के बादल को
धरा के लिए ।
१४.
' मैं ' और ' तुम '
खोज रहे साम्राज्य
' हम ' कहाँ है ?
१५.
कृत्रिम पुष्प
मुरझाते तो नहीं
भरमाते हैं ।
१६.
चार पहर
जीवन सब जाने
फिर भी भूले !
१७.
ओह बसंत
सज के तू आया
जग सोया है !
१८.
ठोकरों से तो
आहात होता मन
पग सशक्त ।
१९.
सजाया देश
विदेशी कैक्टस से
काँटे ही काँटे ।
२०.
शेर की खाल
शेर से मूल्यवान
कैसा समय ।
२१.
व्यथाएँ साँझी
पीड़ा एक ही होती
अलगाव क्योँ ?
२२.
स्व रक्षा हेतु
नाग फुंकार भरे
और क्या करे !
२३.
रणक्षेत्र में
आहात मानवता
सहारा माँगे ।
२४.
तन को देखा
मन में भी झांकते
दर्पण बोला ।
२५.
भावों का भाग्य
' लॉकर ' में बंद है
पुस्तकालय ।
२६.
जायेगे कहाँ
वृक्षों को काट कर
छाया के लिए !
२७.
स्वाद अपना
हर कार्य फल का
चुनाव करें ।
२८.
मीन न डूबी
जल में रहके भी
पर हो गीई ।
२९.
बढ़ रहा है
आतंक का चीर क्यों ?
कौन बुनता ?
३०.
कैद नेता के
स्वार्थी हाथों में आज
हाय प्रगति !
३१.
नए पृष्ठों से
नई पुस्तक बनी
शब्द वही है ।
३२.
स्वच्छ हवा में
घुटन भर जाए
शांति घुटती ।
३३.
सिद्धांत तो है
प्रकृति भी पालती
हम क्यों भूले !
३४.
संतोष हेतु
रोटी तलाश रही
स्थान आज है ।
३५.
मन में उठें
उफनती लहरें
आत्मा किनारा ।
३६.
धूल जमी है
पद चिन्हों पे आज
उठो बुहारे !
३७.
भटकन है
टुकडों में छाँव हो
धुप ही भली ।
३८.
सत्ता की आग
ठंडा कर सकते
जलाने वाले
३९.
मात्र सफर
जीवन का सार है
लक्ष्य है कहाँ !
४०.
सेकते रोटी
सत्ता की आग पर
आज मंत्री हैं ।
४१.
वृक्ष की जड़
दीमक चाट गई
नीड उजड़े ।
४२.
बिखरें अंश
अर्थहीन हो जाते
टूटे दर्पण ।
४३.
रंक की पीर
बेरोज़गारी वश
तड़प रही ।
४४.
चाँद को रात
दिन को सूर्य मिला
भाग्य अपना ।
४५.
ओस कण भी
मोती सम लगते
भोर जो होगी ।
४६.
कुम्हार रचे
नित नए खिलौने
धुप सेकती ।
४७.
प्रीत का पता
जानता कोई नहीं
फिर भी ढूँढे ।
४८.
ज़मी मन पे
धूल की परतें हैं
कैसी हवा है ।
४९.
वाह रे मेघ
गरजा उसी पर
जिससे बना ।
५०.
छिपा चाँद है
बादलों की ओट में
प्रतीक्षा करें ।
५१.
साँसें दूभर
घुट गया है चैन
ढ़हे दीवारें ।
५२.
बजाना पड़े
टूटे तारों का साज़
धुन क्या बने ।
५३.
सागर बना
बूँदें एक हुई तो
फिर गरजा !
५४.
समेटा जब
बिखरी किरचों को
घायल हुए ।
५५.
जाड़े की धूप
हर कोई सेकता
जाड़े से तोबा ।
५६.
विस्मित ऋतू
कटते वन देख
समेटा छोर ।
५७.
शीत हिम भी
सिंदूरी रंग बने
सूर्योदय हो ।
५८.
ग्रहण युक्त
सूर्य से फैल जाता
प्रदूषण है ।
५९.
बुद्धिवाद को
शिक्षा ने पनपाया
आत्मा उदास ।
६०.
जले अबाध
प्राण रुपी दीपक
फिर भी तम ।
६१.
मार्ग ही लक्ष्य
चलना तो जीवन
जीना है कहाँ ।
६२.
भाषण सुना
हाथ बजते गए
पेट पिचका ।
६३.
अंधे को लाठी
राह दिखा सकती
मज़बूत हो ।
६४.
ताश के पत्ते
बिखेर जाते जब
तमाशा होता ।
६५.
धुप न आये
खुली खिड़की से भी
यदि पर्दा हो ।
६७.
शाशन करे
सुरक्षा के घेरे में
स्वार्थ आज ।
६८.
हिंसा के हाथ
माला जपते आज
फले व फूले ।
६८.
वक्त ने ओढ़ी
तम की चादर है
सोये हैं हम !
६९.
बिन तेल के
आदर्शों की बाती है
धुआँ फैलती ।
७०.
मधुर फल
विष - वृक्ष रोप के
नेता चखतें ।
७१.
ज्योति पर्व में
दिये आहुति देते
रात भोगती ।
७२.
रंग बदले
मौसम ने अपने
वृक्ष सहते ।
७३.
पार करना
बहुत दुष्कर है
तम घना हो ।
७४.
दिए की लौ को
छीन न पाई हवा
बुझा ही गयी ।
७५.
वर्षा हुई तो
नम हो गयी मिट्टी
पत्थर घुले ।
७६.
विष का पान
शिव ने भी किया है
संतान हम ।
७७.
जीवन राह
कामना यान पर
अतृप्ति रही ।
७८.
सिकुड़ गए
रिश्तों के दायरे
बिन धूप के ।
७९.
काल प्रबल
जानते सब यहाँ
माने न कोई ।
८०.
धैर्य निकाले
नाव को भंवर से
बचाये भाग्य ।
७१.
नंगा अड़ा है
टोपी पहनने को
बीच बाज़ार ।
८२.
सर उठाये
धरा की छाती पर
पर्वत खड़ा ।
८3.
कल्प वृक्ष है
सत्ताधारियों हेतु
बेरोज़गारी ।
८४.
मणि बना है
इच्छाधारी नागों का
संसद अब ।
८५.
बिक रहा है
स्वार्थ की रक्षा वास्ते
दोस्ती कवच ।
८६.
कामधेनु का
पालन करे प्रजा
दोहन नेता ।
८७.
जलता जब
बिन तेल दीपक
धुआं उठता ।
८८.
देश विदेश
मन - धर्म भिन्न है
आत्मा तो साँझी ।
८९.
लम्बे नाखून
संक्रमक बनते
पाले कीटाणु ।
९०.
सब जानते
समय शक्तिमान
भूले फिर भी ।
९१.
पलते साँप ।
कंटीली झाड़ियों में
मार्ग भ्रमित ।
९२.
भार झेलते
लम्बे नाखूनों का है
कोमल हाथ ।
९३.
पूजनीय है
पत्थर की मूर्ती भी
विश्वास से ही ।
९४.
धुआँ पीकर
गीली लकड़ी जले
निराश मन ।
९५.
धुआँ ही धुआँ
गीली लकड़ी जले
नयन नम ।
९६.
उजड़े नीड़
नील नभ निहारे
किसे पुकारें ।
९७.
काल प्रबल
संस्कार संबल है
भूल क्यों रहे ।
९८.
दस्तक दी है
जीवन भर जहाँ
द्वार बंद था ।
९९.
सदा बहार
चुनाव बना अब
लोकतंत्र में ।
९००.
आहट से ही
भयभीत हो जाता
शंकित मन ।
१०१.
कस्तूरी सूंघे
वन- वन की धूल
भूल ही भूल ।
१०२.
कुतर रही
मानवता के पंख
वक़्त की कैंची ।
१०३.
होठों पे हंसी
मन में चीत्कार है
नई सभ्यता ।
१०४.
जंगल कटे
ठिकाना ढूँढ़ती है
ऋतुएँ अब ।
१०५.
मन की ज्वाला
बन जाये मशाल
होगा कमाल ।
९०६.
सब बनेंगे
राख के पुतले,तो
मान किस पे !
१०७.
आहात पक्षी
फड़फड़ाये पंख
बाज़ झपटा ।
१०८.
साँसें सीमित
भाग्य भी निश्चित है
तृष्णा फिर भी ?
१०९.
काँटों के बीच
गुलाब मुस्काया
माली ने तोड़ा ।
११०.
छोड़ के संग
विकल्पों की भीड़ का
खुद को पाया ।
१११.
रक्त का रंग
फीका हो गया कैसे ?
नसों में तो था ।
११२.
फीका हो गया
रक्त का अब रंग
अस्वस्थ हुए ।
११३.
स्वार्थ हेतु है
परमार्थ बेचते
कच्चे व्यापारी ।
११४.
कंटीला मार्ग
विषैले जीव पाले
हम राही है ।
११५.
देश- विदेश
परमाणु होड़ में
बेघर शाँति ।
११६.
वेदना - पीड़ा
झाड़ियों में अटकी
कौन छुड़ाये !
११७.
हमसे आज
पुस्तकों के शब्द हैं
अर्थ माँगते ।
११८.
आनंद द्वार
प्रभु भक्त से खुले
मन साँकल ।
११९.
बाँसुरी बजी
राधा - गोपियाँ नाची
चुप रुक्मणी ।
१२०.
आहत मन
विनती किसे करे
कौन है स्वस्थ !
१२१.
आहें भरके
बेबस की आरज़ू
दम तोड़ती ।
१२२.
आहार बनी
छोटी मीन बड़ी की
सागर का क्या ?
१२३.
तुम्हारी सुनूँ
आपनी व्यथा कहूँ
समय नहीं ।
१२४.
पटरी पर
पहियों की दौड़ ही
लक्ष्य चूमती ।
१२५.
कमल कैसे
दलदल में खिला
टैक्स लगाओ
१२६.
अतीत भूला
आज से मुँह फेरा
कल की चिंता
१२७.
प्यासी थी मीन
हाय ! सागर में भी
रही प्यासी ही !
१२८.
टूटा दर्पण
बिम्ब बने है कई
किसे निहारें ।
१२९.
वृक्ष की जड़
धरा से सुरक्षित
ताके नभ को ।
१३०.
घुट रहा है
आत्मा के आरोपों से
बेबस मन ।
१३१.
प्रगटे सूर्य
मेघों के रहते भी
फिर क्या डर ।
१३२.
रिसते रिश्ते
भिगोये आँचल को
निचोड़े प्रीत ।
१३३.
बदले हम
विचार भी बदले
' मैं ' न बदला ।
१३४.
कोमल कंधे
ढोते भारी बस्ते हैं
खिसका ज्ञान ।
१३५.
जोंक व नाग
बनते रहे रिश्ते
पालते सभी ।
१३६.
पैसा आज है
दानव बन गया
खा रहा मूल्य ।
१३७.
इच्छा हो रही
निश्चेष्ट हंसने की
जायें किधर ?
१३८.
वक़्त बदला
मीट संग रीत भी
विचार भी क्या !
१३९.
बंद नयन
द्वार ढूँढ़ते रहे
खाई ठोकर ।
१४०.
रंक की रोटी
भाग रहा छीनने
कुबेर आज ।
१४१.
हम तत्पर
कहाँ जाने के लिए
पंख लगा के ।
१४२.
कैद में आज
' बापू ' के बंदर हैं
नेता के पास ।
१४३.
धुएँ मानिंद
फैला आतंकवाद
हवा भी संग ।
१४४.
किस दिशा में
रूठ के चली गई
उन्मुक्त हंसी ।
१४५.
जीवन थमा
रचे तुम्हारे गीत
समय नहीं !
१४६.
पैसा व प्रेम
भाग्य से ही मिलता
श्रम फैलता ।
१४७.
मौसम संग
हम भी बदले
क्या से क्या होते ।
१४८.
' तुम ' और ' मैं '
संग दोनों चले थे
हम बिछड़े ।
१४९.
सफल नर
परीक्षा देती नारी
कैसी प्रणाली ।
१५०.
ऋतु बदले
रंग अपने सदा
मुझे क्यों भाये ?
१५१.
आग फैलती
धुआँ ऊपर उठे
आज की सदी ।
१५२.
' गुड नाईट '
मच्छर भी समझे
हम भी बोले ।
१५३.
जलती नारी
हाथ सेके पुरुष
घर में धुआँ ।
१५४.
ऊँची पतंग
सब का प्रेम पाये
गिरे न भाये ।
१५५.
उड़ान कला
युवक सीख रहे
मोम पंखों से ।
१५६.
इच्छा के पंख
अटके जहाँ पर
अभाव जन्मा ।
१५७.
आह की कील
मन में गढ़ जाती
शब्द फूटते ।
१५८.
सत्य सहते
यथार्थ झेलते हैं
झूठ बेचते ।
१५९.
सदा वसंत
मंत्री के संग रहे
कड़ी सुरक्षा !
१६०.
हिंदी अपनी
' मेम ' प्रीत पराई
न दो दुहाई ।
१६१.
बरगद भी
आग चटख जाये
बिन नमी के ।
१६२.
ऋषि - देश में
दैत्य वारिस बने
शंखनाद हो ।
१६३.
बिन पत्तों के
वृक्ष ठूँठ हो गए
वक़्त की चाल ।
१६४.
स्वयं खड़ी की
दीवारें चहुँ ओर
मचाया शोर ।
१६५.
जड़ ही जड़
युग मशीनी अब
बाँटे क्या भला !
१६६.
गंगा का कहीं
पाश्चात्य पत्थरों से
टूटे न पुल ।
१६७.
अँधेरी रात
तम का साम्राज्य
अंधे निश्चिन्त ।
१६८.
मेघ गरजे
मोर नाचने लगे
धरा उदास ।
१६९.
सत्य की राह
शूलों पर चलना
छाले सहना ।
१७०.
राख ही राख
चिंगारी बना देगी
सूखे न नमी ।
१७१.
सूर्य चमके
तारे टिमटिमाते
दान का फल ।
१७२.
सब खेलते
शतरंज की चाल
जग बिसात ।
१७३.
सूर्य चमके
पर्वत लाँघ कर
सवेरा हो तो ।
१७४.
पवन किसी
दिशा अधीन नहीं
रोको तो, आँधी ।
१७५.
यज्ञ रचाएँ
मानवता के लिए
समिदा ढूँढ़ें ।
१७६.
पोटली ले के
कुँवारी आशाओं की
मन भटका ।
१७७.
पीड़ा व दर्द
सब ओर चमके
सजा बाज़ार ।
१७८.
खोने न देंगे
संस्कार संबल
रक्षक बने ।
१७९.
तय करना
भीतर का सफर
जीवन - लक्ष्य ।
१८०.
ईमानदारी
फूलती चाहे नहीं
फलती तो है !
१८१.
कुंठा में आज
जड़ चक्रव्यूह के
अभिमन्यु है ।
१८२.
धुंधली दृष्टि
नील नभ निहारे
हतप्रभ हूँ ।
१८३.
चाँद भी तो है
रात में ही खिलता
निराश क्यों हो ।
१८४.
पुराने राग
साज जो बदले तो
क्षुब्ध समाज ।
१८५.
ताकते हो क्यों !
गिराये ये दीवारें
मिलाओ हाथ ।
१८६.
फूट जो जाए
अंकुर बेवक़्त भी
फलता नहीं ।
१८७.
भाषण कैसे
उत्तेजित भीड़ का
कवच बना !
१८८.
जग हंसाई
जीर्णपल्ला बाँधना
गाँठ भी टूटे ।
१८९.
रोक राह है
संकल्पों की भीड़ का
नसों का रक्त ।
१९०.
तुम से लम्बी
तुम्हारी परछाई
सच क्या मानूँ !
१९१.
लम्बे नाखून
हाथ व पाँव पंगु
जीवन भार ।
१९२.
हिंसा का स्वाद
नरभक्षी जीव ने
चरवा है आज ।
१९३.
बदले अर्थ
शब्दों ने आज जब
भाषा को खोजा ।
१९४.
सोपान हेतु
'लिफ्ट' बनी रीत है
पंगु हो गए ।
१९५.
किसे कहेगी
वादी व्यथा अपनी
विधवा बनी ।
१९६.
मुखौटों से तो
रूप ढका जा सके
आत्मा क्या करे ।
१९७.
उजला पृष्ठ
अर्थवान बनता
रोशनाई से ।
१९८.
घुट रही हो
भावनाएँ जब तो
व्यथित शब्द ।
१९९.
जलती बाती
बिन तेल फैलाये
केवल तम ।
२००.
अनेक मोड़
भावनाएँ लाँध के
फिर भी वही ।
२०१.
प्राप्त करके
किराये का जीवन
चुकाते ऋण ।
२०२.
मिलेगा मुझे
आतंक कब तक
विरासत में ।
२०३.
शादी का जोड़ा
रस्मों की वेदी पर
राख हो गया ।
२०४.
चौराहे पे हूँ
किंककर्तव्यमूढ़
चक्षु बंद है ।
२०५.
भाग रहे हो
मुट्ठी बंद करके
हाथ हिलाओ ।
२०६.
व्यर्थ दौड़ के
होड़ में सब है क्यों
लक्ष्य एक ही ।
२०७.
संकल्प संग
जीवन बदलता
किसी किसी का ।
२०८.
सत्ता का मद
अहंकार दे जाता
आनंद कहाँ ।
२०९.
अहिंसा आज
हिंसा के पंजों में
है
आओ छुड़ाये !
२१०.
जीवन तो है
किराये की मशीन
बुनता कर्म ।
२११.
कर्मों का धागा
बुनता जीवन है
ढकता मृत्यु ।
२१२.
सत्ता वैभव
सर चढ़ के बोले
बिन पाँव के ।
२१३.
नर घिसता
नाग लिपटे हुए
चन्दन भाग्य ।
२१४.
जन्मी संतान
शिक्षा प्रणाली से है
बेरोज़गारी ।
२१५.
महक भिन्न
वन उपवन की
मिट्टी एक है ।
२१६.
एक ठोकर
बूँदों से भरा कुम्भ
बिखरा गई ।
२१७.
गरजते हैं
भिड़ते मेघ जब
काँपती धरा ।
२१८.
कवि की वाणी
सत्य की शरण में
सुरक्षा माँगें ।
२१९.
सींची नीर से
विस्थापन के पीड़ा
फल बेबसी ।
२२०.
केंचुल छोड़े
नवीन रूप हेतु
महानगर ।
२२१.
मुक्त करेंगे
' ड़ल ' को कचरे से
फैंकेंगे कहाँ ?
२२२.
' गया ' पीपल
आज के ' सिद्दार्थ
' को
पुकार रहा ।
२२३.
आज भी वही
माँ बाप व श्रवण
मूल्य क्यों नहीं !
२२४.
ग्रामीण पक्षी
महानगर आये
भूले उड़ान
२२५.
अपनापन
अपनों के हाथों ही
मसला गया ।
२२६.
कुनमुनाया
डरा बिंदु सा आज
स्वदेश प्रेम ।
२२७.
स्वदेश हित
विदेश विचारता
नपुंसकता ।
२२८.
स्वराज्य में है
विदेशी सभ्यता का
आज़ादी पर्व ।
२२९.
दधीचि त्याग
क्रन्दन कर रहा
तिजोरियों में ।
२३०.
हाशिए पर
ज़मीर की जंज़ीर
लटकी हुई ।
२३१.
रौशनी तो है
सातरंगों का मेल
अतः धवल ।
२३२.
आँख मिचौली
खेलती भावनाएँ
मन के साथ ।
२३३.
बहता रहे
जीवन पानी सम
लक्ष्य भी बहे ।
२३४.
ताप से हिम
पिघल कर बही
मन में जमी ।
२३५.
इंद्र धनुष
रंगों में उलझाए
भ्रमित हुए ।
२३६.
हवा रुख पे
महक है निर्भर
लोकतंत्र में ।
२३७.
ऑंसू सूखते
अपने बेगाने हो
आह भी घुटे ।
२३८.
पहुँचाती है
चढ़ाई शिखर पे
ढलान खाई ।
२३९.
साँसे दूभर
घुटन से हो जाती
जीना दुष्कर ।
१४०.
तुम्हारा नाम
कोरे पृष्ठ पे लिखा
नीर से घुला ।
२४१.
निर्मल नीर
सिल पर चढ़ाया
बिखर गया ।
२४२.
मौके की बेटी
ससुराल की बहु
बेहता जल ।
२४३.
सहरा हो तो
सूर्य भी देता छाले
चाँदनी छल ।
२४४.
बाढ़ तो बाढ़
ढह जाता सर्वस्व
बूँद ही भली ।
२४५.
रिक्त गागर
प्यास तो न बुझाये
बजे अवश्य ।
२४६.
नीड़ बनता
जुड़े तिनको से ही
बिखरे चुभे ।
२४७.
वृक्ष सहता
पतझड़ में शीत
मौसम ने दी ।
२४८.
बुना स्वयं ही
अपना है कुकून
किसकी भूल ।
२४९.
सिंदूरी उषा
घूँघट में छिपाए
शिशु प्रातः है ।
२५०.
प्रेम सुधा को
तलाश रहे सब
बिन प्यास के ।
२५१.
ठिकरी करे
कुम्हार को घायल
आज की रीत ।
२५२.
संसद बना
अनीति का अखाड़ा
मत हमारा ।
२५३.
आतंक चीर
धरा को ढक गया
रोको हे ' कृष्ण ' ।
२५४.
बिखरे अंश
अर्थहीन हो जाते
देते चुभन ।
२५५.
सुलगते हैं
दहकते अंगारे
बुझे क्या जलें ।
२५६.
बगीचा सूखा
वीराना बन गया
पनपे शूल ।
२५७.
बंद नयन
सपना सजाते हैं
जीवन नहीं ।
२५८.
नयन जब
सपनों को सजाएँ
चैन चुरायें ।
२५९.
राह नेता की
सुगम बन गई
पुल बना के ।
२६०.
आहात आज
' बापू ' के बंदर हैं
भय से चुप ।
२६१.
भावनाओं को
दफनाऊँ किधर
है दलदल ।
२६२.
मिट्टी में माना
रंग नमी भिन्न है
पंक पंक सी ।
२६३.
पुष्प की गंध
सूख के भी न मिटी
हवा ले उड़ी ।
२६४.
बिन जल के
यायावर बादल
आकाश पर ।
२६५.
पुकार रही
भटकी मानवता
मदद हेतु ।
२६६.
रात हुई तो
जले यादों के दिये
बुझे नीर से ।
२६७.
बदल नापें
नभ धरा की दूरी
मिटा न सके ।
२६८.
बूँद का त्याग
बनी वर्षा की लड़ी
धरा से मिली ।
२६९.
पराई लगे
अपने ही होठों पे
मुस्कान आज ।
२७०.
चाँदनी कैद
हो गयी है तम में
अमावस्या है ।
२७१.
उथली नदी
लाँघ सकते सब
गहरी नहीं ।
२७२.
देख सकते
चित्र ही तो ख़ुशी का
बना न अभी ।
२७३.
पत्ते झड़े तो
पक्षी भी उड़ गए
तन्हा पीपल ।
२७४.
साथ निभाती
मात्र कर्मोँ की पूँजी
जोड़ते चलें ।
२७५
वसंत संग
रंग, पुष्प, महक
भाग्य अपना ।
२७६.
कलियाँ खिली
बगिया इतराई
खिले थे टेसु ।
२७७.
रस्सी की गाँठ
सहता बूढ़ा वृक्ष
बना है झूला ।
२७८.
सूखे खेतों से
मिट्टी भी उड़ गई
हवा के संग ।
२७९.
प्यासी धरा तो
नभ ताकती रही
मौसम बीता ।
२८०.
आग फैलती
धुआँ ऊपर उठे
तपती धरा ।
२८१.
पर्वत सहे
हिम घुटन, ताप
प्रपात बने ।
२८२.
नमी सोख ली
धरा की आकाश ने
बरसा फिर ।
२८३.
उझले आज
निपुण हाथों से ही
सुलझे धागे ।
२८४.
प्रभु एक है
हर कोई मानता
जान भी लेता !
२८५.
सब घूमते
प्रेम सागर में हैं
बसते नहीं ।
२८६.
खरीदी पीर
सजे बाज़ार से क्यों
?
हाय रे मन ।
२८७.
डूब तो गई
छिद्रों भरी नौका थी
हम भी डूबे ।
२८८.
सूखा सावन
नहला न सका तो
दहला गया ।
२८९.
दूषित हुआ
सागर सरिता का
स्वच्छ जल क्यों ?
२९०.
पर्व भी अब
दौड़े पैसों की ओर
क्या मनायेगे !
२९१.
डाल दो वोट
समेटें हम नोट
मत तुम्हारा !
२९२.
झूठ व सत्य
नदी के दो छोर थे
सेतु से मिले ।
२९३.
लोहे का द्वार
लाँघ न सकी भूख
' हट ' में घुसी ।
२९४.
उल्टे पाँव ही
सावन चला गया
जाने क्या हुआ !
२९५.
खो गई मेरी
स्वप्न कतरन भी
आँख जो खुली ।
२९६.
दे दो न सकी
छीन गई सपने
बेरोज़गारी ।
२९७.
धूमिल आशा
तय करे सफर
बिन डगर ।
२९८.
बीत गया है
नव वर्ष ढूँढ़ते
हर वर्ष ही ।
२९९.
ओस कण भी
मोती सम चमके
उजास जो हो
३००.
गीत हूँ भूला
कैसे गुनगुनाऊँ
याद तड़पे।
३०१.
मिटा न सके
समय के थपेड़े
राह को कभी ।
३०२.
किस के अश्रु
चाँदनी में भी बहे
ओस बनके ।
३०३.
डूबेंगे जब
विचारों की बाढ़ में
यात्रा आरम्भ ।
३०४.
तन के वस्त्र
मन ढक गए हैं
रो रही लाज ।
३०५.
वृक्ष का धैर्य
अंधड़ रोक सके
दीमक नहीं ।
३०६.
भ्रष्टाचार में
श्रम का परिणाम
गुमनामी है ।
३०७.
ऊँचे महल
महानगर के हैं
धुप को रोके ।
३०८.
उगे पलाश
केसर की क्यारी में
हवा उदास ।
३०९.
शिशु व्यथित
पालने में आज है
ममता हेतु ।
३१०.
लक्ष्मी के घर
चिंतन कैद आज
चेतना चुप ।
३११.
आत्मा गिरवी
आनंद की तलाश
बुझे न प्यास ।
३१२.
नभ विस्तृत
गहरा है सागर
धरा विशाल ।
३१३.
सौतेलापन
अपने ही घर में
हिंदी क्यों सहे ?
३१४.
कार्यालयों में
भय चर रहा है
विश्वास खेती ।
३१५.
मंत्री पी रहे
बहसों की प्याली में
देश का भाग्य ।
३१६.
मानव जब
आत्मीयता से बचे
तो नेता बने ।
३१७.
सेंकते मंत्री
बेरोज़गारी - आग
हो मुट्ठी गर्म ।
३१८.
बन गई है
बेरोज़गारी 'फैक्ट्री'
शिक्षा प्रणाली ।
३१९
अपना घर
विवादों से क्यों भरा
किसकी रज़ा !
३२०.
चोट खा कर
दिन गुज़र गया
रात दर्द में ।
३२१.
भ्रष्टाचार का
उत्तर कहाँ ढूँढें
प्रश्न ही व्यर्थ !
३२२.
हिमालय से
टकराई जो हवा
ठंडी हो गई ।
३२३.
जग खरीदा
आत्मा के मोल पर
फिर भी रिक्त ?
३२४.
युधिष्ठिर ने
आत्मा दाव लगाई
द्रोपदी - हेतु ।
३२५.
शारदा पुत्र
शिखर पर बैठा
सहता शीत ।
३२६.
क्रय - विक्रय
दलदल का हुआ
संसद बना ।
३२७.
देश प्रेम में
जो डूबा पार हुआ
क्यों भयभीत !
३२८.
हम रूप है
हम राज़ क्यों नहीं
!
मैं और तुम ।
३२९.
संवेदना से
जन्म लेती कविता
समाज पिता ।
३३०.
दो भिन्न भाव
हर्ष और विशाद
मन तो एक ।
३३१.
नेता के हाथों
पाप दूषित हुआ
न्याय माँगता ।
३३२.
निश्चित हुए
वृहन्नला बन के
इस दौर में ।
३३३.
विष अमृत
सागर में छिपा है
समय साक्षी !
३३४.
मिट कर ही
बीज वृक्ष बना है
नहीं तो दाना ।
३३५.
पितृ - पक्ष में
कौव्वे अब न आते
हंस हैं बने ।
३३६.
कंकर गिरा
यादों के पोखर में
काई थी जमी ।
३३७.
मात्र भूमि की
त्रिवेणी में नहाके
पवित्र हुए ।
३३८.
इसकी इच्छा
किस ओर जायेगा
है वनराज ।
३३९.
दीपक जला
तम हुआ रोशन
भटके फिर ।
३४०.
कीटाणु आज
आँतों में पल रहे
तन को खाये ।
३४१.
सुन सकते
टूटने के आवाज़
शोर हो बंद !
३४२.
अन्तस में तो
प्राची का उजास है
पट ही बंद !
३४३.
ताज़ा ख़बरें
आज का समाचार
महक बासी ।
३४४.
सहरा बनी
कचरा भरने से
खुद्दार नदी ।
३४५.
सब घूमते
दर्दे दिल को लेके
खोटा सिक्का है !
३४६.
स्वार्थ हेतु ही
कसते हो लगाम
अड़ा घोड़ा तो..
३४७.
तुम्हारा हुस्न
मेरे इश्क़ से हरा
हाय बेचारा !
३४८.
जीवन तो था
अमानत प्रभु की
सौगात बनी ।
३४९.
सूखा कानन
विरासत में देंगे
उगेंगे शूल ।
३५०.
झूठ न भाये
सत्य से परहेज़
बीमार हम ।
३५१.
भेड़ को घास
भेड़िये डाल रहे
लोकतंत्र है ।
३५२.
विज्ञापन ने
संतोष की रेखाएँ
धूमिल की हैं ।
३५३.
ढूँढ़ने चले
चैन कहाँ मिलेगा
बिना पता के ।
३५४.
बिखरे अंश
अर्थहीन हो जाते
भाव खो जाते ।
३५५.
रंक की पीर
पीस कर अधीर
ताकती नभ ।
३५६.
चाँद हेतु भी
रुक सके न सूर्य
विवश दोनों ।
३५७.
यज्ञ रचते
मानवता के लिए
मंत्र ही भूले ।
३५८.
भटक रही
तृप्ति की तलाश में
भूख है आज ।
३५९.
बहा ले गई
स्वार्थ की बाढ़ कहाँ
!
अपनापन ।
३६०.
धूप ही भली
टुकड़ों में छाँव से
भ्रम तो मिटे ।
३६१.
धूल जमी है
आप्त वचनों पर
क्राँति झाड़ेगी ।
३६२.
विश्व में फैली
प्रदूषित हवा से
आधि व व्याधि ।
३६३.
मार्ग जीवन
चलना तो लक्ष्य है
जीना कहाँ है ।
३६४.
जननी हेतु
रोपे स्वार्थ के शूल
अपने पूत ।
३६५.
खरीदकर
बेचकर भी स्वार्थ
हाय उदास ।
३६६.
चूहों के बिल
साँपों के घर बने
पर्वत भोगे ।
३६७.
अपने हाथ
चुनते रहे शूल
किसकी भूल !
३६८.
टूटे शीशे में
एक के कई रूप
भ्रमित करें
३६९.
मेरे अंश से
स्वरूप तुम्हारा है
मुझे ही भूले ।
३७०.
दिये की लौ तो
तम से भिड़ सके
जल कर ही ।
३७१.
उग्रवाद का
डेरा अब वन है
शहर चले ।
३७२.
हवा के संग
गुब्बारे सी उड़ती
प्रीत आज क्यों !
३७३.
पत्थर में भी
अंकुर फूट सके
ऋतू दे साथ ।
३७४.
फैली जाती है
वायु के संग ही तो
गंध - सुगंध ।
३७५.
साथ न देता
तारों भरा नभ भी
अमावस्या हो ।
३७६.
आतंक आज
किससे किस को है
निर्णय - क्षण ।
३७७.
सूखा सुमन
पृष्ठों में दब कर
घुटा रहा ।
३७८.
रेगिस्तान को
शबनम की बूँदे
हरा क्या करें !
३७९.
तेज़ वर्षा से
किनारे ढह गए
निराश आशा ।
३८०.
प्रश्न बने है
उत्तर भी जग के
प्रश्न पत्र हूँ !
३८१.
हिम में अब
धुटन भर गई
सूर्य चमके !
३८२.
लोहे ने सहा
सोना आग से मिला
फिर भी सोना !
३८३.
पैसे की बोली
हर कोई समझे
बोले न सब ।
३८४.
लोहा तपता
निखरता सोना है
आग क्या करे !
३८५.
नए साल की
प्रतीक्षा खींच लाई
जीवन डोर ।
३८६.
बही थी नदी
स्वयं राह बना के
सूख क्यों गई !
३८७.
वितस्ता सूखी
जेहलम बन के
प्यासे रहे !
३८८.
सत्ता व प्रजा
दर दर भटके
दोनों भूखे है ।
३८९.
राम की चाह
रावण के छल से
सीता विकल ।
३९०.
कंधों पे लेके
ढो रहे कर्मचारी
'बॉस' की कुर्सी ।
३९१.
सुन सकेंगे
व्यथा 'व्यथ' की कैसे
बहरे हम ।
३९२.
वितस्ता पर
पल बन गया है
दोनों तटों से ।
३९३.
वितस्ता में है
कचरा भर दिया
लाँघने हेतु ।
३९४.
डूबेगें पुल
वितस्ता पर बने
हिम पिघले
३९५.
सदियों से है
बह रही वितस्ता
दो तटों मध्य
३९६.
वेश भूषा से
रूप बदल जाता
स्वरूप कहाँ !
३९७.
पढ़ तो पाये
राष्ट्रभाषा योजना
अंग्रेज़ी सीखें !
३९८.
सत्ता फैलाये
आश्वासनों का जाल
प्रजा शिकार
३९९.
रेगिस्तान में
चाँदनी की आभा से
राही उलझा ।
४००.
कैसी हवा है
शोले भड़का दिये
दिये बुझाये ।
४०१.
स्वार्थ से ही तो
महफ़िल सजती
निस्वार्थी तन्हा ।
४०२.
श्वेत बालों में
मेहंदी रंग लाई
काले कुम्लाये
४०३.
जिस बूँद को
मिटा गया ताप है
बनता मोती !
४०४.
जीवन डोर
नववर्ष के कर
समेटते है ।
४०५.
वर्षा की तेज़ी
किनारे ढह डाले
पानी की होड़ ।
४०६.
सोये क्यों अब
ओढ़े स्वार्थ - चादर
सवेरा हुआ ।
४०७.
समय नहीं
संवेदना हेतु भी
व्यापारी जग ।
४०८.
जीवन कैद
प्रश्नों की पोटली में
खुले न गाँठ ।
४०९.
सूनी आँखों से
सपने बह गए
प्रतीक्षा जन्मी ।
४१०.
सुरक्षित है
बिन लिपि के ही तो
मौन की भाषा ।
४११.
होड़ लगी है
दुःख - सुख में आज
आहत दोनों ।
४१२.
आशा न लेती
रुकने का नाम ही
निराशा थमी ।
४१३.
अणु से ग्रस्त
बीमार है रोशनी
कैसा सूरज ।
४१४.
जले जो आग
जड़ हो जाए राख
फैले प्रकाश ।
४१५.
'मैं' या 'हम'
चुनाव आवश्यक
साँसे सीमित ।
४१६.
जड़ - चेतन
खिलौनों से खेलता
विज्ञान आज ।
४१७.
विष का प्याला
समय पीकर है
फुंकार रहा ।
४१८.
बाँट न सके
मेरे गम को तुम
' मैं ' न खुशी को ।
४१९.
ज्वालामुखी से
धरा से फूटा लावा
पत्थर बना ।
४२०.
बाँझ की प्रथा
नपुंसकता ने दी
भविष्य रोया ।
४२१.
हाय रे मन
संवेदना पुकारे
निर्वासित हूँ!
४२२.
नमन - पात्र
सूर्यादय बनता
श्रम धरा का!
४२३.
साँझा है दर्द
तुम्हारा - मेरा फिर
जुदा क्यों हम!
४२४.
श्रम रचता
वादों से लटकता
जीवन - चित्र ।
४२५.
मूक मशीन
जीवन बना गई
जड़ वस्तुऐं ।
४२६.
मेरी वंचना
वंचित कर गई
प्रभु - कृपा से ।
४२७.
खींचने से तो
टूट जाती डोर है
हाथ भी दूर ।
४२८.
कुचल गया
उदात्त दृष्टिकोण
छल - भीड़ में ।
४२९.
कराह रही
निष्कपट भावना
नींव बनी है ।
४३०.
ऊँची - पतंग
नब को छूने वाली
स्वार्थ ने काटी ।
४३१.
संवेदना है
अंधकूप में कैद
धुन से त्रस्त ।
४३२.
श्रद्धा - भावना
आज अंक बन के
उछल रहे ।
४३३.
वस्तुपरक
व्यवहार जन्म दे
जड़ प्रकृति ।
४३४.
दिव्य बीज को
गणित प्रकृति ने
शूल बनाया ।
४३५.
मूल्य - गिराये
गणित को उभारे
शिक्षा - प्रणाली ।
४३६.
छाये कोहरा
धुंदला दिखाई दे
रास्ता भी ढके ।
४३७.
दृष्टि चुराई
बिन आवरण है
मृत्यु प्रत्यक्ष ।
४३८.
धरा में नमी
आँसू न ला सके तो
क्या जग बाँझ !
४३९.
घायल हुए
आशा के पंख जब
धुल में मिले
४४०.
सिकुड़ गई
शब्दों की परिभाषा
बदली लिपि
४४१.
डाल दो शस्त्र
कब कोइ जीतता!
बिम्ब से युद्ध ।
४४२.
पोटली थामे
कुंवारी आशाओं की
भटका मन ।
४४३.
सूर्य - उदय
फैलता उजास है
मिटता तम।
४४४.
अमूल्य मोती
मन के गर्भ में है
चाह प्रसव ।
४४५.
वसीयत में
वेदना - धरोहर
ममता पाये ।
४४६.
शोले सुलगे
राख का ढेर हुए
हवा ले उड़ी ।
४४७.
आग फैलती
धुआँ ऊँचाई मापे
क्यों बनी रीत !
४४८.
'सेल' ही 'सेल'
वेदना की लगी है
बाज़ार गर्म ।
४४९.
नम हो जाये
नीर से भरा कुम्भ
रिसता रहे ।
४५०.
भवन बने
श्रमिक के श्रम से
झोपड़ी टूटी ।
४५१.
बिना सीता के
राम गृहस्थी बना
रामराज्य है ।
४५२.
शादी का रिश्ता
बिन आत्मीयता के
भीषण रोग ।
४५३.
मोल लेते है
आदि - व्याधि धाम को
होड़ - होड़ में ।
४५४.
गणित नहीं
जीवन तो कला है
तूलिका हाथ ।
४५५.
जीवन - खेल
कब तक खेलेंगे
मिट्टी के साथ ।
४५६.
शाँन्ति के गीत
आओ मिलके रचें
कल गूँजेगें
४५७.
सूखी धरा है
आकाश धुँध - भरा
कैसा मौसम ।
४५८.
शरीर पट
तार - तार हो रहा
' मैं ' नाच रहा ।
४५९.
तम - राज्य में
त्रस्ट साये से हम
हवा कंपाती ।
४६०.
प्रेम - बंधन
प्रतीक्षा की गाँठ में
बंध ही गया ।
४६१.
वेदना तो है
सुलगाती ज़िंदगी
राख जीवन ।
४६२.
कुसंस्कारों ने
शासन सम्भाला है
मत हमारा ।
४६३.
प्रेरणा स्रोत्र
सूख रहे आज है
भिड़ते मेघ ।
४६४.
चरमराये
फटा जूता पाँव में
आहत करे ।
४६५.
जमी है काई
ठहरे पानी पर
प्यासा जग है ।
४६६.
हरे चश्मे से
हरियाली दिखती
प्रकाश नहीं ।
४६७.
हिम व बर्फ
ठिठुर रही वादी
जला दो वन ।
४६८.
तपता चूल्हा
भूख नहीं मिटाता
आँच देता है ।
४६९.
हिम वादी का
आग ने पिघलाया
बह रहे है ।
४७०.
मेघ गरजे
प्यासा सावन रोये
मोरों ने नाचा ।
४७१.
द्रोपदी - चीर
बन के भ्रष्टाचार
ढके आत्मा को ।
४७२.
आस मचली
कल्पना - उड़ान से
मन मुस्काया ।
४७३.
भीतर तम
बाहर रोशनी है
दीवाली हुई ।
४७४.
भूख व प्यास
दोषों की जननी है
पिता समय ।
४७५.
राह अपनी
शाखाओं ने बदली
कटा तना जो ।
४७६.
मन दिखता
स्वप्न आँखों को जब
शान्ति रूठती ।
४७७.
नन्हें दो हाथ
कब तक तैरेंगे
बिन सहारे ।
४७८.
घुंघट उठा
मानवता चिल्लाई
राजनीति थी ।
४७९.
कोहरा छाया
सड़क ढक गई
दृष्टि धूमिल ।
४८0.
चाँदनी रात
तारे जगमगाए
सूर्य ओट में ।
४८१.
खौलने पर
उड़ जाता भाप है
पात्र तपता ।
४८२.
बादल हटे
देख सकते तब
नग - शिखर ।
४८३.
पानी की होड़
किनारे ढह डाले
दूषित जल ।
४८४.
नई सदी में
जनसंख्या चिल्लाई
कैसे लूँ साँस ।
४८५.
राह कंटीली
दामन में पत्थर
कैसा पर्वत !
४८६.
मन व बुद्धि
पिटारों की होड़ में
आत्मा बाँचती ।
४८७.
माँगता रहा
आज कल से ब्यौरा
तत्व साल का
४८८.
स्वार्थ कैंची से
कतरनों का ढेर
रिश्ते बने है ।
४८९.
आँसू का मोल
लगाना व्यर्थ आज
बाज़ार नहीं ।
४९०.
समेटते है
नव वर्ष के हाथ
जीवन - डोर ।
४९१.
हवा का रुख
लहरों को दिशा दे
सागर चुप ।
४९२.
रंक व धनी
देश के करीब है
पास न दोनों ।
४९३.
कन्या का जन्म
जीवन व मरण
एक हादसा ।
४९४.
बाहर धुआँ
भीतर प्रदूषण
साँसें दूभर ।
४९५.
हर दिशा में
किरचें बिखरी है
टूटा समाज ।
४९६.
वृक्ष का धैर्य
दीमक चाट जाये
खोखला करे ।
४९७.
रिश्तों का मूल्य
इतना बंट गया
शुन्य हो गया ।
४९८.
सुरक्षा ध्वज
पंक से लथपथ
सागर चुप ।
४९९.
दौड़ते यान
पहचान पा गए
चिन्ह खो गए ।
५००.
शाँति स्थल के
संतोष द्वार खोले
ईमानदारी ।
५०१.
वर्षा का जल
भर देता पोखर
न कि सागर ।
५०२.
मौसम तो है
दलों को मुरझाता
वृक्ष को वक्त ।
५०३.
उपचार है
आत्मिक रोगों का तो
मानवता ही ।
५०४.
विद्यालयों में
वातायन बंद है
खुले है द्वार ।
५०५.
बाँस ने जब
भीतर किया खाली
बनी बाँसुरी ।
५०६.
बहार आँधी
भीतर तूफान है
दीये उदास ।
५०७.
हर सदी में
अवतार तो आये
तर न पाए ।
५०८.
गुलाब खिला
शूलों में रह कर
प्रभु मेहर ।
५०९.
स्वाति - नक्षत्र
बूँद बनाये मोती
क्षण अनमोल ।
५१०.
तेज़ गति से
पहिये घिसते भी
टूटते भी हैं ।
५११.
तड़प उठा
अपने ही शूल से
मेरा गुलाब ।
५१२.
वृक्ष सहता
प्रहार पे प्रहार
तो नीड़ बने ।
५१३.
सूख ही गया
नीर सहारा में था
तप के जला ।
५१४.
चाहने वाले
पुष्प तोड़ के चले
शूल छोड़ के ।
५१५.
बीती न रैन
दिवस के स्वप्न में
मूँदे नयन ।
५१६.
चाँद दूल्हा है
चाँदी की झालर से
झाँकता निशा ।
५१७.
काली रात में
जल दिए दिये तो
दीवाली हुई ।
५१८.
ग्रास भी क्यों
दानव - दहेज की
रिश्तों की शक्ति ।
५१९.
रोशनी तो है
फिर भी तुम क्यों !
खिड़की खोलो ।
५२०.
एक दिवस
गांधी जयंती का है
शेष हमारे ।
५२१.
परीक्षा वक़्त
सन्दर्भ भी न मिला
टटोले ग्रन्थ ।
५२२.
धरा से नमी
सोख के बना मेघ
चढ़ा आकाश ।
५२३.
डोर के रेशे
सीलन से टूटते
खुलती गाँठ ।
५२४.
राह सुगम
भीतरी सफर की
कला से होती ।
५२५.
मेरी आवाज़
प्रतिध्वनित हो के
शरमाई क्यों ।
५२६.
शिव का पथ
शिवमय बना दे
चढ़े शिखर
५२७.
चन्दन को भी
जलना पड़ता है
महक हेतु ।
५२८.
युग सृजन
युवक तेरा मोल
दाम बढ़ाओ !
५२६.
परछाई में
आत्मा कहाँ होती है
जीना ही व्यर्थ ।
५३०.
रेशमी वस्त्र
रेशमी देह पर
फिसल रहे !
५३१.
बंजर हो के
हिसाब माँगे धरा
उगा के शूल ।
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