हाइकु संग्रह ' धरा के लिए '

.



१. 

पतंग उड़े

जहाँ तक डोर हो

जीवन सार । 

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२.

तुम्हारे गीत

गुनगुनाते रहे

सुना न सके । 


३.

बढ़ते पग

दूरी माप सकते

रुके क्या करे !


४. 

राखी पहने 

कलाई मुस्काई

मन पलायित ।


५.

मेरे धागों को

तुमने उलझाया   

दे दी नग्नता ।


६.

मुखौटों पर

मजबूर मुस्कानें

मन आहात ।


कैद हुआ है

रेशम का कीड़ा तो

किसकी भूल !


८.

पत्थर क्या है

लोहा भी पिगलेगा 

आग चाहिए ।


९.

जग की रीत

जानते सब ही हैं 

निभाता कोइ ।


१०.

आश्रित जग

अनिश्चित क्षणों पे

फिर भी होड़ !


११.

एक ही राग

पिक ने आलापा जो 

तो रस भरा ।


१२.

सूने घर में

वेदना की गूंज है

तन्हाई बोली ।


१३.

झुकना पड़ा 

नभ के बादल को

धरा के लिए ।


१४.

' मैं ' और ' तुम '

खोज रहे साम्राज्य

' हम ' कहाँ है ?


१५.

कृत्रिम पुष्प 

मुरझाते तो नहीं

भरमाते हैं ।


१६.

चार पहर

जीवन सब जाने

फिर भी भूले !


१७.

ओह बसंत 

सज के तू आया

जग सोया है !


१८.

ठोकरों से तो 

आहात होता मन

पग सशक्त ।


१९.

सजाया देश

विदेशी कैक्टस से 

काँटे ही काँटे ।


२०.

शेर की खाल

शेर से मूल्यवान

कैसा समय ।


२१.

व्यथाएँ साँझी

पीड़ा एक ही होती 

अलगाव क्योँ ?


२२.

स्व रक्षा हेतु

नाग फुंकार भरे

और क्या करे !


२३.

रणक्षेत्र में

आहात मानवता

सहारा माँगे ।


२४.

तन को देखा 

मन में भी झांकते

दर्पण बोला । 


२५.

भावों का भाग्य

' लॉकर ' में बंद है

पुस्तकालय । 


२६.

जायेगे कहाँ 

वृक्षों को काट कर

छाया के लिए !


२७.             

स्वाद अपना

हर कार्य फल का

चुनाव करें । 


२८.

मीन न डूबी

जल में रहके भी 

पर हो गीई । 


२९.

बढ़ रहा है

आतंक का चीर क्यों ?

कौन बुनता ?


३०.

कैद नेता के

स्वार्थी हाथों में आज

हाय प्रगति !


३१.

नए पृष्ठों से

नई पुस्तक बनी

शब्द वही है ।


३२.    

स्वच्छ हवा में 

घुटन भर जाए

शांति घुटती ।


३३.

सिद्धांत तो है

प्रकृति भी पालती 

हम क्यों भूले !


३४.

संतोष हेतु

रोटी तलाश रही

स्थान आज है ।


३५.

मन में उठें

उफनती लहरें

आत्मा किनारा ।


३६.

धूल जमी है

पद चिन्हों पे आज

उठो बुहारे !  


३७.

भटकन है

टुकडों में छाँव हो

धुप ही भली ।


३८.

सत्ता की आग

ठंडा कर सकते 

जलाने वाले


३९.

मात्र सफर 

जीवन का सार है

लक्ष्य है कहाँ !


४०.

सेकते रोटी

सत्ता की आग पर

आज मंत्री हैं ।

४१.

वृक्ष की जड़

दीमक चाट गई

नीड उजड़े ।


४२.

बिखरें अंश

अर्थहीन हो जाते

टूटे दर्पण ।


४३.

रंक की पीर

बेरोज़गारी वश 

तड़प रही ।


४४.

चाँद को रात

दिन को सूर्य मिला

भाग्य अपना ।


४५.

ओस कण भी

मोती सम लगते

भोर जो होगी ।


४६.

कुम्हार रचे

नित नए खिलौने

धुप सेकती ।


४७.

प्रीत का पता

जानता कोई नहीं

फिर भी ढूँढे ।


४८.

ज़मी मन पे

धूल की परतें हैं 

कैसी हवा है ।


४९.

वाह रे मेघ 

गरजा उसी पर

जिससे बना ।


५०.

छिपा चाँद है

बादलों की ओट में

प्रतीक्षा करें ।


५१.

साँसें दूभर

घुट गया है चैन

ढ़हे दीवारें ।

५२.

बजाना पड़े 

टूटे तारों का साज़

धुन क्या बने ।


५३.

सागर बना

बूँदें एक हुई तो

फिर गरजा !


५४.

समेटा जब

बिखरी किरचों को

घायल हुए ।  


५५.

जाड़े की धूप

हर कोई सेकता

जाड़े से तोबा ।


५६.

विस्मित ऋतू 

कटते वन देख

समेटा छोर ।    


५७.

शीत हिम भी 

सिंदूरी रंग बने 

सूर्योदय हो ।

५८.

ग्रहण युक्त

सूर्य से फैल जाता

प्रदूषण है ।


५९.

बुद्धिवाद को

शिक्षा ने पनपाया

आत्मा उदास ।


६०.

जले अबाध

प्राण रुपी दीपक

फिर भी तम ।


६१. 

मार्ग ही लक्ष्य

चलना तो जीवन

जीना है कहाँ । 


६२.

भाषण सुना

हाथ बजते गए

पेट पिचका । 


६३.

अंधे को लाठी

राह दिखा सकती

मज़बूत हो ।


६४.

ताश के पत्ते

बिखेर जाते जब

तमाशा होता । 


६५.

धुप न आये

खुली खिड़की से भी

यदि पर्दा हो ।


६७.

शाशन करे

सुरक्षा के घेरे में

स्वार्थ आज ।


६८.

हिंसा के हाथ

माला जपते आज

फले व फूले । 


६८.

वक्त ने ओढ़ी

तम की चादर है

सोये हैं हम !


६९.

बिन तेल के

आदर्शों की बाती है

धुआँ फैलती ।


७०.

मधुर फल 

विष - वृक्ष रोप के

नेता चखतें ।


७१.

ज्योति पर्व में

दिये आहुति देते

रात भोगती ।


७२.

रंग बदले

मौसम ने अपने 

वृक्ष सहते ।


७३.

पार करना 

बहुत दुष्कर है

तम घना हो ।

    

 ७४.

दिए की लौ को

छीन न पाई हवा

बुझा ही गयी ।


७५.

वर्षा हुई तो

नम हो गयी मिट्टी 

पत्थर घुले ।


७६.

विष का पान 

शिव ने भी किया है

संतान हम ।


७७.

जीवन राह

कामना यान पर

अतृप्ति रही ।


७८.

सिकुड़ गए  

रिश्तों के दायरे

बिन धूप के । 


७९.

काल प्रबल

जानते सब यहाँ

माने न कोई ।


८०.

धैर्य निकाले     

नाव को भंवर से

बचाये भाग्य ।


७१.

नंगा अड़ा है 

टोपी पहनने को

बीच बाज़ार ।


८२.

सर उठाये 

धरा की छाती पर

पर्वत खड़ा ।


८3.

कल्प वृक्ष है

सत्ताधारियों हेतु

बेरोज़गारी ।


८४.

मणि बना है

इच्छाधारी नागों का

संसद अब ।


८५.

बिक रहा है

स्वार्थ की रक्षा वास्ते

दोस्ती कवच ।


८६.

कामधेनु का

पालन करे प्रजा 

दोहन नेता ।


८७.

जलता जब

बिन तेल दीपक

धुआं उठता ।


८८.

देश विदेश

मन - धर्म भिन्न है

आत्मा तो साँझी ।


८९.

लम्बे नाखून

संक्रमक बनते 

पाले कीटाणु ।


९०.

सब जानते

समय शक्तिमान

भूले फिर भी ।

  

९१.

पलते साँप ।

कंटीली झाड़ियों में

मार्ग भ्रमित ।


९२.

भार झेलते

लम्बे नाखूनों का है

कोमल हाथ ।


९३.

पूजनीय है

पत्थर की मूर्ती भी

विश्वास से ही ।


९४.

धुआँ पीकर 

गीली लकड़ी जले 

निराश मन ।   


९५. 

धुआँ ही धुआँ

गीली लकड़ी जले

नयन नम ।

 

९६.

उजड़े नीड़

नील नभ निहारे

किसे पुकारें ।  


९७.

काल प्रबल 

संस्कार संबल है

भूल क्यों रहे ।


९८.

दस्तक दी है

जीवन भर जहाँ   

द्वार बंद था ।


९९.

सदा बहार

चुनाव बना अब

लोकतंत्र में ।


९००.

आहट से ही

भयभीत हो जाता

शंकित मन ।


१०१.

कस्तूरी सूंघे

वन- वन की धूल

भूल ही भूल ।


१०२.

कुतर रही

मानवता के पंख

वक़्त की कैंची ।


१०३.

होठों पे हंसी

मन में चीत्कार है

नई सभ्यता ।


१०४.

जंगल कटे

ठिकाना ढूँढ़ती है

ऋतुएँ अब ।


१०५.

मन की ज्वाला

बन जाये मशाल

होगा कमाल ।


९०६.

सब बनेंगे

राख के पुतले,तो 

मान किस पे !


१०७.

आहात पक्षी

फड़फड़ाये पंख

बाज़ झपटा ।


१०८.

साँसें सीमित

भाग्य भी निश्चित है

तृष्णा फिर भी ?


१०९.

काँटों के बीच

गुलाब मुस्काया

माली ने तोड़ा ।


११०.

छोड़ के संग

विकल्पों की भीड़ का

खुद को पाया ।

 

१११.

रक्त का रंग

फीका हो गया कैसे ?

नसों में तो था ।


११२.

फीका हो गया

रक्त का अब रंग

अस्वस्थ हुए ।


११३.

स्वार्थ हेतु है

परमार्थ बेचते

कच्चे व्यापारी ।


११४.   

कंटीला मार्ग

विषैले जीव पाले  

हम राही है ।


११५.

देश- विदेश

परमाणु होड़ में

बेघर शाँति ।



११६.  

वेदना - पीड़ा

झाड़ियों में अटकी 

कौन छुड़ाये !


११७.

हमसे आज 

पुस्तकों के शब्द हैं 

अर्थ माँगते ।


११८. 

आनंद द्वार

प्रभु भक्त से खुले 

मन साँकल ।


११९.

बाँसुरी बजी

राधा - गोपियाँ नाची

चुप रुक्मणी ।


१२०.

आहत मन

विनती किसे करे

कौन है स्वस्थ !


१२१.

आहें भरके

बेबस की आरज़ू

दम तोड़ती ।        


१२२.

आहार बनी

छोटी मीन बड़ी की

सागर का क्या ?


१२३.

तुम्हारी सुनूँ

आपनी व्यथा कहूँ

समय नहीं ।


१२४.

पटरी पर

पहियों की दौड़ ही

लक्ष्य चूमती ।

 

१२५.

कमल कैसे

दलदल में खिला

टैक्स लगाओ

 

१२६.

अतीत भूला

आज से मुँह फेरा

कल की चिंता

 

१२७.

प्यासी थी मीन

हाय ! सागर में भी

रही प्यासी ही !

 

१२८.

टूटा दर्पण

बिम्ब बने है कई

किसे निहारें ।

 

१२९.

वृक्ष की जड़

धरा से सुरक्षित

ताके नभ को ।

 

१३०.

घुट रहा है

आत्मा के आरोपों से

बेबस मन ।

 

१३१.

प्रगटे सूर्य

मेघों के रहते भी

फिर क्या डर ।

 

१३२.

रिसते रिश्ते

भिगोये आँचल को

निचोड़े प्रीत ।

 

१३३.

बदले हम

विचार भी बदले

' मैं ' न बदला ।

 

१३४.

कोमल कंधे       

ढोते भारी बस्ते हैं

खिसका ज्ञान ।

 

१३५.

जोंक व नाग

बनते रहे रिश्ते

पालते सभी ।

 

१३६.

पैसा आज है

दानव बन गया

खा रहा मूल्य ।

 

१३७.

इच्छा हो रही

निश्‍चेष्‍ट हंसने की

जायें किधर ?

 

१३८.

वक़्त बदला

मीट संग रीत भी

विचार भी क्या !

 

१३९.

बंद नयन

द्वार ढूँढ़ते रहे

खाई ठोकर ।  

 

१४०.

रंक की रोटी

भाग रहा छीनने

कुबेर आज ।

 

१४१.

हम तत्पर

कहाँ जाने के लिए

पंख लगा के ।

 

१४२.

कैद में आज

' बापू ' के बंदर हैं

नेता के पास ।

 

१४३.

धुएँ मानिंद

फैला आतंकवाद

हवा भी संग ।

 

१४४.

किस दिशा में

रूठ के चली गई

उन्मुक्त हंसी ।

 

१४५.

जीवन थमा

रचे तुम्हारे गीत

समय नहीं  !

 

१४६.

पैसा व प्रेम

भाग्य से ही मिलता

श्रम फैलता ।

 

१४७.

मौसम संग

हम भी बदले

क्या से क्या होते ।

 

१४८.

' तुम ' और ' मैं '

संग दोनों चले थे

हम बिछड़े ।

 

१४९.

सफल नर

परीक्षा देती नारी

कैसी प्रणाली ।

 

१५०.

ऋतु बदले

रंग अपने सदा

मुझे क्यों भाये ?

 

१५१.

आग फैलती

धुआँ ऊपर उठे

आज की सदी ।

 

१५२. 

' गुड नाईट '

मच्छर भी समझे

हम भी बोले ।

 

१५३.

जलती नारी

हाथ सेके पुरुष

घर में धुआँ ।


 १५४.

ऊँची पतंग

सब का प्रेम पाये

गिरे न भाये ।

 

१५५.

उड़ान कला

युवक सीख रहे

मोम पंखों से ।

 

१५६.

इच्छा के पंख

अटके जहाँ पर

अभाव जन्मा ।

 

१५७.

आह की कील

मन में गढ़ जाती

शब्द फूटते ।

 

१५८.

सत्य सहते

यथार्थ झेलते हैं

झूठ बेचते ।

 

१५९.

सदा वसंत

मंत्री के संग रहे

कड़ी सुरक्षा !

 

१६०.

हिंदी अपनी

' मेम ' प्रीत पराई

न दो दुहाई ।

 

१६१.

बरगद भी

आग चटख जाये

बिन नमी के ।

 

१६२.

ऋषि - देश में

दैत्य वारिस बने

शंखनाद हो ।

 

१६३. 

बिन पत्तों के

वृक्ष ठूँठ हो गए

वक़्त की चाल ।

 

१६४.

स्वयं खड़ी की

दीवारें चहुँ ओर

मचाया शोर ।

 

१६५.

जड़ ही जड़

युग मशीनी अब

बाँटे क्या भला !

 

१६६.

गंगा का कहीं

पाश्चात्य पत्थरों से

टूटे न पुल ।

 

१६७.

अँधेरी रात

तम का साम्राज्य

अंधे निश्चिन्त ।

 

१६८.

मेघ गरजे

मोर नाचने लगे

धरा उदास ।  

 

१६९.

सत्य की राह

शूलों पर चलना

छाले सहना ।

 

१७०.

राख ही राख 

चिंगारी बना देगी

सूखे न नमी ।

 

१७१.

सूर्य चमके

तारे टिमटिमाते

दान का फल ।

१७२.

सब खेलते

शतरंज की चाल 

जग बिसात ।

 

१७३.

सूर्य चमके

पर्वत लाँघ कर

सवेरा हो तो ।

 

१७४.

पवन किसी

दिशा अधीन नहीं

रोको तो, आँधी ।

 

१७५.

यज्ञ रचाएँ

मानवता के लिए

समिदा ढूँढ़ें ।

 

१७६.

पोटली ले के

कुँवारी आशाओं की

मन भटका ।

 

१७७.

पीड़ा व दर्द

सब ओर चमके

सजा बाज़ार ।

 

१७८.

खोने न देंगे

संस्कार संबल

रक्षक बने ।

 

१७९.

तय करना

भीतर का सफर

जीवन - लक्ष्य ।

 

१८०.

ईमानदारी

फूलती चाहे नहीं

फलती तो है !

 

१८१.

कुंठा में आज

जड़ चक्रव्यूह के

अभिमन्यु है ।

 

१८२.

धुंधली दृष्टि

नील नभ निहारे

हतप्रभ हूँ ।

 

१८३.

चाँद भी तो है

रात में ही खिलता

निराश क्यों हो ।

 

१८४.

पुराने राग

साज जो बदले तो

क्षुब्ध समाज ।

 

१८५.

ताकते हो क्यों !

गिराये ये दीवारें

मिलाओ हाथ ।

 

१८६.

फूट जो जाए

अंकुर बेवक़्त भी

फलता नहीं ।

 

१८७.

भाषण कैसे

उत्तेजित भीड़ का

कवच बना !   

 

१८८.

जग हंसाई

जीर्णपल्ला बाँधना

गाँठ भी टूटे ।

 

१८९.

रोक राह है

संकल्पों की भीड़ का

नसों का रक्त ।

 

१९०.

तुम से लम्बी

तुम्हारी परछाई

सच क्या मानूँ  !

 

१९१.

लम्बे नाखून

हाथ व पाँव पंगु

जीवन भार ।

 

१९२.

हिंसा का स्वाद

नरभक्षी जीव ने

चरवा है आज ।

 

१९३.

बदले अर्थ

शब्दों ने आज जब

भाषा को खोजा ।


१९४.

सोपान हेतु

'लिफ्ट' बनी रीत है

पंगु हो गए ।

 

१९५.

किसे कहेगी

वादी व्यथा अपनी

विधवा बनी ।

 

१९६.

मुखौटों से तो

रूप ढका जा सके

आत्मा क्या करे ।

 

१९७.

उजला पृष्ठ

अर्थवान बनता

रोशनाई से ।

 

१९८.

घुट रही हो

भावनाएँ जब तो

व्यथित शब्द ।

 

१९९.

जलती बाती

बिन तेल फैलाये

केवल तम ।

 

२००.

अनेक मोड़

भावनाएँ लाँध के

फिर भी वही ।

 

२०१.

प्राप्त करके

किराये का जीवन

चुकाते ऋण ।


२०२.

मिलेगा मुझे

आतंक कब तक

विरासत में ।

 

२०३.

शादी का जोड़ा

रस्मों की वेदी पर

राख हो गया ।

 

२०४.

चौराहे पे हूँ

किंककर्तव्यमूढ़

चक्षु बंद है ।

 

२०५.

भाग रहे हो

मुट्ठी बंद करके

हाथ हिलाओ ।

 

२०६.

व्यर्थ दौड़ के

होड़ में सब है क्यों

लक्ष्य एक ही ।

 

२०७.

संकल्प संग

जीवन बदलता

किसी किसी का ।

 

२०८.

सत्ता का मद

अहंकार दे जाता

आनंद कहाँ ।

 

२०९.

अहिंसा आज

हिंसा के पंजों में है

आओ छुड़ाये !

 

२१०.

जीवन तो है

किराये की मशीन

बुनता कर्म ।

 

२११.

कर्मों का धागा

बुनता जीवन है

ढकता मृत्यु ।

 

२१२.

सत्ता वैभव

सर चढ़ के बोले

बिन पाँव के ।

 

२१३.

नर घिसता

नाग लिपटे हुए

चन्दन भाग्य ।


२१४.

जन्मी संतान

शिक्षा प्रणाली से है

बेरोज़गारी ।

 

२१५.

महक भिन्न

वन उपवन की

मिट्टी एक है ।

 

२१६.

एक ठोकर

बूँदों से भरा कुम्भ

बिखरा गई ।

 

२१७.

गरजते हैं

भिड़ते मेघ जब

काँपती धरा ।

 

२१८.

कवि की वाणी

सत्य की शरण में

सुरक्षा माँगें । 

 

२१९.

सींची नीर से

विस्थापन के पीड़ा

फल बेबसी ।


२२०.

केंचुल छोड़े

नवीन रूप हेतु

महानगर ।

 

२२१.

मुक्त करेंगे

' ड़ल ' को कचरे से

फैंकेंगे कहाँ ?

 

२२२.

' गया ' पीपल

आज के ' सिद्दार्थ ' को

पुकार रहा ।

 

२२३.

आज भी वही

माँ बाप व श्रवण

मूल्य क्यों नहीं !

 

२२४.

ग्रामीण पक्षी

महानगर आये

भूले उड़ान

 

२२५.

अपनापन

अपनों के हाथों ही

मसला गया ।

 

२२६.

कुनमुनाया

डरा बिंदु सा आज

स्वदेश प्रेम ।

 

२२७.

स्वदेश हित

विदेश विचारता

नपुंसकता ।

 

२२८.

स्वराज्य में है

विदेशी सभ्यता का

आज़ादी पर्व ।

 

२२९.

दधीचि त्याग

क्रन्दन कर रहा

तिजोरियों में ।

 

२३०.

हाशिए पर

ज़मीर की जंज़ीर

लटकी हुई ।

 

२३१.

रौशनी तो है

सातरंगों का मेल

अतः धवल ।

 

२३२.

आँख मिचौली

खेलती भावनाएँ

मन के साथ ।

 

२३३.

बहता रहे

जीवन पानी सम

लक्ष्य भी बहे ।

 

२३४.

ताप से हिम

पिघल कर बही

मन में जमी ।

 

२३५.

इंद्र धनुष

रंगों में उलझाए

भ्रमित हुए ।

 


२३६.

हवा रुख पे

महक है निर्भर

लोकतंत्र में ।

  

२३७.

ऑंसू सूखते

अपने बेगाने हो

आह भी घुटे ।

 

२३८.

पहुँचाती है

चढ़ाई शिखर पे 

ढलान खाई ।

 

२३९.

साँसे दूभर

घुटन से हो जाती

जीना दुष्कर ।

 

१४०.

तुम्हारा नाम

कोरे पृष्ठ पे लिखा

नीर से घुला ।

 

२४१.

निर्मल नीर

सिल पर चढ़ाया

बिखर गया ।

 

२४२.

मौके की बेटी

ससुराल की बहु

बेहता जल ।

 

२४३.

सहरा हो तो

सूर्य भी देता छाले

चाँदनी छल ।

 

२४४.

बाढ़ तो बाढ़

ढह जाता सर्वस्व

बूँद ही भली ।

 

२४५.

रिक्त गागर

प्यास तो न बुझाये

बजे अवश्य ।

 

२४६.

नीड़ बनता

जुड़े तिनको से ही

बिखरे चुभे ।

 

२४७.

वृक्ष सहता 

पतझड़ में शीत

मौसम ने दी ।

 

२४८.

बुना स्वयं ही

अपना है कुकून

किसकी भूल ।

 

२४९.

सिंदूरी उषा

घूँघट में छिपाए

शिशु प्रातः है ।

 

२५०.

प्रेम सुधा को

तलाश रहे सब

बिन प्यास के ।

 

२५१.

ठिकरी करे

कुम्हार को घायल

आज की रीत ।

 

२५२.

संसद बना

अनीति का अखाड़ा

मत हमारा ।

 

२५३.

आतंक चीर

धरा को ढक गया

रोको हे ' कृष्ण ' ।

 

२५४.

बिखरे अंश

अर्थहीन हो जाते

देते चुभन ।

 

२५५.

सुलगते हैं

दहकते अंगारे

बुझे क्या जलें ।


२५६.

बगीचा सूखा

वीराना बन गया

पनपे शूल ।

 

२५७.

बंद नयन

सपना सजाते हैं

जीवन नहीं ।

 

२५८.

नयन जब

सपनों को सजाएँ

चैन चुरायें ।

 

२५९.

राह नेता की

सुगम बन गई

पुल बना के ।

 

२६०.

आहात आज

' बापू ' के बंदर हैं

भय से चुप ।

 

२६१.

भावनाओं को

दफनाऊँ किधर

है दलदल ।

 

२६२.

मिट्टी में माना

रंग नमी भिन्न है

पंक पंक सी ।

 

२६३.

पुष्प की गंध

सूख के भी न मिटी

हवा ले उड़ी ।

 

२६४.

बिन जल के

यायावर बादल

आकाश पर ।

 

२६५.

पुकार रही

भटकी मानवता

मदद हेतु 

 

२६६.

रात हुई तो

जले यादों के दिये

बुझे नीर से ।

 

२६७.

बदल नापें

नभ धरा की दूरी

मिटा न सके ।  

 

२६८.

बूँद का त्याग

बनी वर्षा की लड़ी

धरा से मिली ।

 

२६९.

पराई लगे

अपने ही होठों पे

मुस्कान आज ।

 

२७०.

चाँदनी कैद

हो गयी है तम में

अमावस्या है ।

 

२७१.

उथली नदी

लाँघ सकते सब

गहरी नहीं ।

 

२७२.

देख सकते

चित्र ही तो ख़ुशी का

बना न अभी ।

 

२७३.

पत्ते झड़े तो

पक्षी भी उड़ गए

तन्हा पीपल ।


२७४.

साथ निभाती

मात्र कर्मोँ की पूँजी

जोड़ते चलें ।

 

२७५

वसंत संग

रंग, पुष्प, महक

भाग्य अपना ।

 

२७६.

कलियाँ खिली

बगिया इतराई

खिले थे टेसु ।

 

२७७.

रस्सी की गाँठ

सहता बूढ़ा वृक्ष

बना है झूला ।

 

२७८.

सूखे खेतों से

मिट्टी भी उड़ गई

हवा के संग ।

 

२७९.

प्यासी धरा तो

नभ ताकती रही

मौसम बीता ।


२८०.

आग फैलती

धुआँ ऊपर उठे

तपती धरा ।

 

२८१.

पर्वत सहे

हिम घुटन, ताप

प्रपात बने ।

 

२८२.

नमी सोख ली

धरा की आकाश ने

बरसा फिर ।

 

२८३.

उझले आज

निपुण हाथों से ही

सुलझे धागे ।

 

२८४.

प्रभु एक है

हर कोई मानता

जान भी लेता !

 

२८५.

सब घूमते

प्रेम सागर में हैं

बसते नहीं ।

 

२८६.

खरीदी पीर

सजे बाज़ार से क्यों ?

हाय रे मन ।

 

२८७.

डूब तो गई

छिद्रों भरी नौका थी

हम भी डूबे ।

 

२८८.

सूखा सावन

नहला न सका तो

दहला गया ।

 

२८९.

दूषित हुआ

सागर सरिता का

स्वच्छ जल क्यों ?

 

२९०.

पर्व भी अब

दौड़े पैसों की ओर

क्या मनायेगे !

 

२९१.

डाल दो वोट

समेटें हम नोट

मत तुम्हारा !

 

२९२.

झूठ व सत्य

नदी के दो छोर थे

सेतु से मिले ।

 

२९३.

लोहे का द्वार

लाँघ न सकी भूख

' हट ' में घुसी ।

 

२९४.

उल्टे पाँव ही

सावन चला गया

जाने क्या हुआ !

 

२९५.

खो गई मेरी

स्वप्न कतरन भी

आँख जो खुली ।

 

२९६.

दे दो न सकी

छीन गई सपने

बेरोज़गारी ।

 

२९७.

धूमिल आशा

तय करे सफर

बिन डगर ।

 

२९८.

बीत गया है

नव वर्ष ढूँढ़ते

हर वर्ष ही ।

 

२९९.

ओस कण भी

मोती सम चमके

उजास जो हो

 

३००.

गीत हूँ भूला

कैसे गुनगुनाऊँ

याद तड़पे।

 

३०१.

मिटा न सके

समय के थपेड़े

राह को कभी ।

 

३०२.

किस के अश्रु

चाँदनी में भी बहे

ओस बनके ।

 

३०३.

डूबेंगे जब

विचारों की बाढ़ में

यात्रा आरम्भ ।


३०४.

तन के वस्त्र

मन ढक गए हैं

रो रही लाज ।

 

३०५.

वृक्ष का धैर्य

अंधड़ रोक सके

दीमक नहीं ।

 

३०६.

भ्रष्टाचार में

श्रम का परिणाम

गुमनामी है ।

 

३०७.

ऊँचे महल

महानगर के हैं

धुप को रोके ।

 

३०८.

उगे पलाश

केसर की क्यारी में

हवा उदास ।

 

३०९.

शिशु व्यथित

पालने में आज है

ममता हेतु ।


३१०.

लक्ष्मी के घर

चिंतन कैद आज

चेतना चुप ।

 

३११.

आत्मा गिरवी

आनंद की तलाश

बुझे न प्यास ।

 

३१२.

नभ विस्तृत

गहरा है सागर

धरा विशाल ।

 

३१३.

सौतेलापन

अपने ही घर में

हिंदी क्यों सहे ?

 

३१४.

कार्यालयों में

भय चर रहा है

विश्वास खेती ।

 

३१५.

मंत्री पी रहे

बहसों की प्याली में

देश का भाग्य ।

 

३१६.

मानव जब

आत्मीयता से बचे

तो नेता बने ।

 

३१७.

सेंकते मंत्री 

बेरोज़गारी - आग

हो मुट्ठी गर्म ।

 

३१८.

बन गई है

बेरोज़गारी 'फैक्ट्री'    

शिक्षा प्रणाली ।

 

३१९

अपना घर

विवादों से क्यों भरा 

किसकी रज़ा !

 

३२०.

चोट खा कर

दिन गुज़र गया

रात दर्द में ।

 

३२१.

भ्रष्टाचार का

उत्तर कहाँ ढूँढें

प्रश्न ही व्यर्थ !

 

३२२.

हिमालय से

टकराई जो हवा

ठंडी हो गई ।

 

३२३.

जग खरीदा

आत्मा के मोल पर

फिर भी रिक्त ?

 

३२४.

युधिष्ठिर ने

आत्मा दाव लगाई

द्रोपदी - हेतु ।

  

३२५.

शारदा पुत्र

शिखर पर बैठा

सहता शीत ।

 

३२६.

क्रय - विक्रय

दलदल का हुआ

संसद बना ।

 

३२७.

देश प्रेम में

जो डूबा पार हुआ

क्यों भयभीत !

 

३२८.

हम रूप है

हम राज़ क्यों नहीं !

मैं और तुम ।

 

३२९.

संवेदना से

जन्म लेती कविता

समाज पिता ।

 

३३०.

दो भिन्न भाव

हर्ष और विशाद

मन तो एक ।

 

३३१.

नेता के हाथों

पाप दूषित हुआ

न्याय माँगता ।

 

३३२.

निश्चित हुए

वृहन्नला बन के

इस दौर में ।

 

३३३.

विष अमृत

सागर में छिपा है

समय साक्षी !

 

३३४.

मिट कर ही

बीज वृक्ष बना है

नहीं तो दाना ।

 

३३५.

पितृ - पक्ष में

कौव्वे अब न आते

हंस हैं बने ।

 

३३६.

कंकर गिरा

यादों के पोखर में

काई थी जमी ।

 

३३७.

मात्र भूमि की

त्रिवेणी में नहाके

पवित्र हुए ।

 

३३८.

इसकी इच्छा

किस ओर जायेगा

है वनराज ।

 

३३९.

दीपक जला

तम हुआ रोशन

भटके फिर ।

 

३४०.

कीटाणु आज

आँतों में पल रहे

तन को खाये ।

 

३४१.

सुन सकते

टूटने के आवाज़

शोर हो बंद !

 

३४२.

अन्तस में तो

प्राची का उजास है

पट ही बंद !

 

३४३.

ताज़ा ख़बरें

आज का समाचार

महक बासी ।

 

३४४.

सहरा बनी

कचरा भरने से

खुद्दार नदी ।

 

३४५.

सब घूमते

दर्दे दिल को लेके

खोटा सिक्का है !

 

३४६.

स्वार्थ हेतु ही

कसते हो लगाम

अड़ा घोड़ा तो..

 

३४७.

तुम्हारा हुस्न

मेरे इश्क़ से हरा

हाय बेचारा !

 

३४८.

जीवन तो था

अमानत प्रभु की

सौगात बनी ।

 

३४९.

सूखा कानन

विरासत में देंगे

उगेंगे शूल ।

 

३५०.

झूठ न भाये

सत्य से परहेज़

बीमार हम ।

 

३५१.

भेड़ को घास

भेड़िये डाल रहे

लोकतंत्र है ।

 

३५२.

विज्ञापन ने

संतोष की रेखाएँ

धूमिल की हैं ।

 

३५३.

ढूँढ़ने चले

चैन कहाँ मिलेगा

बिना पता के ।

 

३५४.

बिखरे अंश

अर्थहीन हो जाते

भाव खो जाते ।

 

३५५.

रंक की पीर

पीस कर अधीर

ताकती नभ ।

 

३५६.

चाँद हेतु भी

रुक सके न सूर्य

विवश दोनों ।

 

३५७.

यज्ञ रचते

मानवता के लिए

मंत्र ही भूले ।

 

३५८.

भटक रही

तृप्ति की तलाश में

भूख है आज ।

 

३५९.

बहा ले गई

स्वार्थ की बाढ़ कहाँ !

अपनापन ।

 

३६०.

धूप ही भली

टुकड़ों में छाँव से

भ्रम तो मिटे ।

 

३६१.

धूल जमी है

आप्त वचनों पर

क्राँति झाड़ेगी ।

 

३६२.

विश्व में फैली

प्रदूषित हवा से

आधि व व्याधि ।

 

३६३.

मार्ग जीवन

चलना तो लक्ष्य है

जीना कहाँ है ।


३६४.

जननी हेतु

रोपे स्वार्थ के शूल

अपने पूत ।

 

३६५.

खरीदकर

बेचकर भी स्वार्थ

हाय उदास ।

 

३६६.

चूहों के बिल

साँपों के घर बने

पर्वत भोगे ।

 

३६७.

अपने हाथ

चुनते रहे शूल

किसकी भूल !  

 

३६८.

टूटे शीशे में

एक के कई रूप

भ्रमित करें

 

३६९.

मेरे अंश से

स्वरूप तुम्हारा है

मुझे ही भूले ।

 

३७०.

दिये की लौ तो

तम से भिड़ सके

जल कर ही ।

 

३७१.

उग्रवाद का

डेरा अब वन है

शहर चले ।

 

३७२.

हवा के संग

गुब्बारे सी उड़ती

प्रीत आज क्यों !

 

३७३.

पत्थर में भी

अंकुर फूट सके

ऋतू दे साथ ।

 

३७४.

फैली जाती है

वायु के संग ही तो

गंध - सुगंध ।

 

३७५.

साथ न देता

तारों भरा नभ भी

अमावस्या हो ।

 

३७६.

आतंक आज

किससे किस को है

निर्णय - क्षण ।

 

३७७.

सूखा सुमन

पृष्ठों में दब कर

घुटा रहा ।

 

३७८.

रेगिस्तान को

शबनम की बूँदे

हरा क्या करें !

 

३७९.

तेज़ वर्षा से

किनारे ढह गए

निराश आशा ।

 

३८०.

प्रश्न बने है

उत्तर भी जग के

 प्रश्न पत्र हूँ !

 

३८१.

हिम में अब

धुटन भर गई

सूर्य चमके !

 

३८२.

लोहे ने सहा

सोना आग से मिला

फिर भी सोना !

 

३८३.

पैसे की बोली

हर कोई समझे

बोले न सब ।

 

३८४.

लोहा तपता

निखरता सोना है

आग क्या करे !

 

३८५.

नए साल की

प्रतीक्षा खींच लाई

जीवन डोर ।

 

३८६.

बही थी नदी

स्वयं राह बना के

सूख क्यों गई !

 

३८७.

वितस्ता सूखी

जेहलम बन के

प्यासे रहे !


३८८.

सत्ता व प्रजा

दर दर भटके

दोनों भूखे है ।

 

३८९.

राम की चाह 

रावण के छल से

सीता विकल ।


३९०.

कंधों पे लेके

ढो रहे कर्मचारी

'बॉस' की कुर्सी ।

 

३९१.

सुन सकेंगे

व्यथा 'व्यथ' की कैसे

बहरे हम ।

 

३९२.

वितस्ता पर

पल बन गया है

दोनों तटों से ।

 

३९३.

वितस्ता में है

कचरा भर दिया

लाँघने हेतु ।

 

३९४.

डूबेगें पुल

वितस्ता पर बने

हिम पिघले

 

३९५.

सदियों से है

बह रही वितस्ता

दो तटों मध्य

 

३९६.

वेश भूषा से

रूप बदल जाता

स्वरूप कहाँ !

 

३९७.

पढ़ तो पाये

राष्ट्रभाषा योजना

अंग्रेज़ी सीखें !

 

३९८.

सत्ता फैलाये

आश्वासनों का जाल

प्रजा शिकार

 

३९९.

रेगिस्तान में

चाँदनी की आभा से

राही उलझा ।

 

४००.

कैसी हवा है

शोले भड़का दिये

दिये बुझाये ।

 

४०१.

स्वार्थ से ही तो

महफ़िल सजती

निस्वार्थी तन्हा ।

 

४०२.

श्वेत बालों में

मेहंदी रंग लाई

काले कुम्लाये

 

४०३.

जिस बूँद को

मिटा गया ताप है

बनता मोती !

 

४०४.

जीवन डोर

नववर्ष के कर

समेटते है ।

 

४०५.

वर्षा की तेज़ी

किनारे ढह डाले

पानी की होड़ ।

 

४०६.

सोये क्यों अब

ओढ़े स्वार्थ - चादर

सवेरा हुआ ।

 

४०७.

समय नहीं

संवेदना हेतु भी

व्यापारी जग ।

 

४०८.

जीवन कैद

प्रश्नों की पोटली में

खुले न गाँठ ।

 

४०९.

सूनी आँखों से

सपने बह गए

प्रतीक्षा जन्मी ।

 

४१०.

सुरक्षित है

बिन लिपि के ही तो

मौन की भाषा ।

 

४११.

होड़ लगी है

दुःख - सुख में आज

आहत दोनों ।


४१२.

आशा न लेती

रुकने का नाम ही

निराशा थमी ।

 

४१३.

अणु से ग्रस्त

बीमार है रोशनी

कैसा सूरज ।

 

४१४.

जले जो आग

जड़ हो जाए राख

फैले प्रकाश ।  

 

४१५.

'मैं' या 'हम' 

चुनाव आवश्यक 

साँसे सीमित ।

 

४१६.

जड़ - चेतन

खिलौनों से खेलता

विज्ञान आज ।

 

४१७.

विष का प्याला

समय पीकर है

फुंकार रहा ।

 

४१८.

बाँट न सके

मेरे गम को तुम

' मैं ' न खुशी को ।

 

४१९.

ज्वालामुखी से

धरा से फूटा लावा

पत्थर बना ।

 

४२०.

बाँझ की प्रथा

नपुंसकता ने दी  

भविष्य रोया ।

 

४२१.

हाय रे मन

संवेदना पुकारे

निर्वासित हूँ!

 

४२२.

नमन - पात्र

सूर्यादय बनता

श्रम धरा का!

 

४२३.

साँझा है दर्द

तुम्हारा - मेरा फिर

जुदा क्यों हम!


४२४.

श्रम रचता

वादों से लटकता

जीवन - चित्र ।

 

४२५.

मूक मशीन

जीवन बना गई

जड़ वस्तुऐं ।

 

४२६.

मेरी वंचना

वंचित कर गई

प्रभु - कृपा से ।

 

४२७.

खींचने से तो

टूट जाती डोर है

हाथ भी दूर ।

 

४२८.

कुचल गया

उदात्त दृष्टिकोण

छल - भीड़ में ।

 

४२९.

कराह रही

निष्कपट भावना

नींव बनी है ।

           

४३०.

ऊँची - पतंग

नब को छूने वाली

स्वार्थ ने काटी ।

 

४३१.

संवेदना है

अंधकूप में कैद

धुन से त्रस्त ।

 

४३२.

श्रद्धा - भावना

आज अंक बन के

उछल रहे ।

 

४३३.

वस्तुपरक

व्यवहार जन्म दे

जड़ प्रकृति ।

 

४३४.

दिव्य बीज को

गणित प्रकृति ने

शूल बनाया ।

 

४३५.

मूल्य - गिराये     

गणित को उभारे

शिक्षा - प्रणाली ।

 

४३६.

छाये कोहरा

धुंदला दिखाई दे

रास्ता भी ढके  ।

 

४३७.

दृष्टि चुराई

बिन आवरण है

मृत्यु प्रत्यक्ष ।

 

४३८.

धरा में नमी

आँसू न ला सके तो

क्या जग बाँझ !

 

४३९.

घायल हुए

आशा के पंख जब

धुल में मिले

 

४४०.

सिकुड़ गई

शब्दों की परिभाषा

बदली लिपि

 

४४१.

डाल दो शस्त्र

कब कोइ जीतता!

बिम्ब से युद्ध ।

 

४४२.

पोटली थामे

कुंवारी आशाओं की

भटका मन ।

 

४४३.

सूर्य - उदय

फैलता उजास है

मिटता तम।

 

४४४.

अमूल्य मोती

मन के गर्भ में है

चाह प्रसव ।

 

४४५.

वसीयत में

वेदना - धरोहर

ममता पाये ।

 

४४६.

शोले सुलगे

राख का ढेर हुए

हवा ले उड़ी ।

 

४४७.

आग फैलती

धुआँ ऊँचाई मापे

क्यों बनी रीत !

 

४४८.

'सेल' ही 'सेल'

वेदना की लगी है

बाज़ार गर्म ।

 

४४९.

नम हो जाये

नीर से भरा कुम्भ

रिसता रहे ।

 

४५०.

भवन बने

श्रमिक के श्रम से

झोपड़ी टूटी ।

 

४५१.

बिना सीता के

राम गृहस्थी बना

रामराज्य है ।

 

४५२.

शादी का रिश्ता

बिन आत्मीयता के

भीषण रोग ।

 

४५३.

मोल लेते है

आदि - व्याधि धाम को

होड़ - होड़ में ।

 

४५४.

गणित नहीं

जीवन तो कला है

तूलिका हाथ ।

 

४५५.

जीवन - खेल

कब तक खेलेंगे

मिट्टी के साथ ।

 

४५६.

शाँन्ति के गीत

आओ मिलके रचें

कल गूँजेगें

 

४५७.

सूखी धरा है

आकाश धुँध - भरा

कैसा मौसम ।

 

४५८.

शरीर पट

तार - तार हो रहा

' मैं ' नाच रहा ।

 

४५९.

तम - राज्य में

त्रस्ट साये से हम

हवा कंपाती ।

 

४६०.

प्रेम - बंधन

प्रतीक्षा की गाँठ में

बंध ही गया ।

 

४६१.

वेदना तो है

सुलगाती ज़िंदगी

राख जीवन ।

 

४६२.

कुसंस्कारों ने

शासन सम्भाला है

मत हमारा ।

 

४६.

प्रेरणा स्रोत्र

सूख रहे आज है

भिड़ते मेघ ।

 

४६४.

चरमराये

फटा जूता पाँव में

आहत करे ।

 

४६५.

जमी है काई

ठहरे पानी पर

प्यासा जग है ।

 

४६६.

हरे चश्मे से

हरियाली दिखती

प्रकाश नहीं ।

 

४६७.

हिम व बर्फ

ठिठुर रही वादी

जला दो वन ।

 

४६८.

तपता चूल्हा

भूख नहीं मिटाता

आँच देता है ।

 

४६९.

हिम वादी का

आग ने पिघलाया

बह रहे है ।

 

४७०.

मेघ गरजे

प्यासा सावन रोये

मोरों ने नाचा ।

 

४७१.

द्रोपदी - चीर

बन के भ्रष्टाचार

ढके आत्मा को ।

 

४७२.

आस मचली

कल्पना - उड़ान से

मन मुस्काया ।

 

४७३.

भीतर तम

बाहर रोशनी है

दीवाली हुई ।

 

४७४.

भूख व प्यास

दोषों की जननी है

पिता समय ।

 

४७५.

राह अपनी

शाखाओं ने बदली

कटा तना जो ।

 

४७६.

मन दिखता

स्वप्न आँखों को जब

शान्ति रूठती ।

 

४७७.

नन्हें दो हाथ

कब तक तैरेंगे

बिन सहारे ।

 

४७८.

घुंघट उठा

मानवता चिल्लाई

राजनीति थी ।

 

४७९.

कोहरा छाया

सड़क ढक गई

दृष्टि धूमिल ।

 

४८0.

चाँदनी रात

तारे जगमगाए

सूर्य ओट में ।

 

४८१.

खौलने पर

उड़ जाता भाप है

पात्र तपता ।

 

४८२.

बादल हटे

देख सकते तब

नग - शिखर ।

 

४८३.

पानी की होड़

किनारे ढह डाले

दूषित जल ।

 

४८४.

नई सदी में

जनसंख्या चिल्लाई

कैसे लूँ साँस ।

 

४८५.

राह कंटीली

दामन में पत्थर

कैसा पर्वत !

 

४८६.

मन व बुद्धि

पिटारों की होड़ में

आत्मा बाँचती ।

 

४८७.

माँगता रहा

आज कल से ब्यौरा

तत्व साल का

 

४८८.

स्वार्थ कैंची से

कतरनों का ढेर

रिश्ते बने है ।

 

४८९.

आँसू का मोल

लगाना व्यर्थ आज

बाज़ार नहीं ।

 

४९०. 

समेटते है

नव वर्ष के हाथ

जीवन - डोर ।

 

४९१.

हवा का रुख

लहरों को दिशा दे

सागर चुप ।

 

४९२.

रंक व धनी

देश के करीब है

पास न दोनों ।

 

४९३.

कन्या का जन्म

जीवन व मरण

एक हादसा ।

 

४९४.

बाहर धुआँ

भीतर प्रदूषण

साँसें दूभर ।

 

४९५.

हर दिशा में

किरचें बिखरी है

टूटा समाज ।

 

४९६. 

वृक्ष का धैर्य

दीमक चाट जाये

खोखला करे ।

 

४९७.

रिश्तों का मूल्य

इतना बंट गया

शुन्य हो गया ।

 

४९८.

सुरक्षा ध्वज

पंक से लथपथ

सागर चुप ।

 

४९९.

दौड़ते यान

पहचान पा गए

चिन्ह खो गए ।

 

५००.

शाँति स्थल के

संतोष द्वार खोले

ईमानदारी ।

 

५०१.

वर्षा का जल

भर देता पोखर

न कि सागर ।

 

५०२.

मौसम तो है

दलों को मुरझाता

वृक्ष को वक्त ।

 

५०३.

उपचार है

आत्मिक रोगों का तो

मानवता ही ।

 

५०४.

विद्यालयों में

वातायन बंद है

खुले है द्वार ।

 

५०५.

बाँस ने जब

भीतर किया खाली

बनी बाँसुरी ।

 

५०६.

बहार आँधी

भीतर तूफान है

दीये उदास ।

 

५०७.

हर सदी में

अवतार तो आये

तर न पाए ।

 

५०८.

गुलाब खिला

शूलों में रह कर

प्रभु मेहर ।

 

५०९.

स्वाति - नक्षत्र

बूँद बनाये मोती

क्षण अनमोल ।

 

५१०.

तेज़ गति से

पहिये घिसते भी

टूटते भी हैं ।

 

५११.

तड़प उठा

अपने ही शूल से

मेरा गुलाब ।

 

५१२.

वृक्ष सहता

प्रहार पे प्रहार

तो नीड़ बने ।

 

५१३.

सूख ही गया

नीर सहारा में था

तप के जला ।

 

५१४.

चाहने वाले

पुष्प तोड़ के चले

शूल छोड़ के ।

 

५१५.

बीती न रैन

दिवस के स्वप्न में

मूँदे नयन ।

 

५१६.

चाँद दूल्हा है

चाँदी की झालर से

झाँकता निशा ।

 

५१७.

काली रात में

जल दिए दिये तो

दीवाली हुई ।

 

५१८.

ग्रास भी क्यों

दानव - दहेज की

रिश्तों की शक्ति ।

 

५१९.

रोशनी तो है

फिर भी तुम क्यों !

खिड़की खोलो ।

 

५२०.

एक दिवस

गांधी जयंती का है

शेष हमारे ।

 

५२१.

परीक्षा वक़्त

सन्दर्भ भी न मिला

टटोले ग्रन्थ ।

 

५२२.

धरा से नमी

सोख के बना मेघ

चढ़ा आकाश ।

 

५२३.

डोर के रेशे

सीलन से टूटते

खुलती गाँठ ।

 

५२४.

राह सुगम

भीतरी सफर की

कला से होती ।

 

५२५.

मेरी आवाज़

प्रतिध्वनित हो के

शरमाई क्यों ।

 

५२६.

शिव का पथ

शिवमय बना दे

चढ़े शिखर

 

५२७.

चन्दन को भी

जलना पड़ता है

महक हेतु ।

 

५२८.

युग सृजन

युवक तेरा मोल 

दाम बढ़ाओ !

 

५२६.

परछाई में

आत्मा कहाँ होती है

जीना ही व्यर्थ ।

 

५३०.

रेशमी वस्त्र

रेशमी देह पर

फिसल रहे !

 

५३१.

बंजर हो के

हिसाब माँगे धरा

गा के शूल ।


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