कविता संग्रह ' हिंदी ' 11

.

     कविता : उल्फत 

    यूँ तो कामिल…
    दर्द के पैमाने, आँखोँ की प्यालियाँ;
    बेसब्री के जाम, साकिन नशेमन;
    सूफी अहद, तन्हा महफ़िल।
    मुफीद कैफियत, तहरीरे शायरी।।

    फिर भी हासिल…
     मतला बेज़ुबान, बहर से बैर;
    रदीफ़ पे नक़ाब, काफ़िये में कुफुर;
    मक्ते में मेरा जिक्र, ‘ नूरम ’ तेरी सादगी।
    अजीब उल्फत है, तेरी ग़ज़ल!!
    Photo by Raimond Klavins on Unsplash

     कविता : दोस्त 

    यह कौन है जो दिल, 
    तोड़ रहा है
    सब्र, 
    कहीं यह तुम तो नहीं ।

    यह कौन है जो कब्र पे, 
    रो रहा है
    बेखबर, 
    कहीं यह तुम तो नहीं ।

    लड़खड़ाते हुए
    बोल पड़ी आँखें
    ' नूरम ' कहीं तुमने 
    सुना तो नहीं ।

     कविता : बाकी सब पीर पराई 

    मौसम बदला, 
    पर अविरल झरने सुख गए,
    अन्नगिनित जानें गई, 
    हर तरफ दुहाई ।
    वीरान रेगिस्तान में,
     बाढ़ आ गई,
    विराट पहाड़ों की,
     ढलाने बह गई ।
    क्यों नदियोँ ने,
     लँगी देहलीज़े,
    क्यों कुदरत ने ली,
     ऐसी अंगड़ाई ।
    हज़ारोँ हुए बेघर, 
    लाखोँ भटके दर-दर;
    हा-हाकार तो मचाया,
     हमने बहुत,
     पर नहीं रोकी,
     वृक्षों की कटाई ।
    विकास के नाम पर हमने,
    सिर्फ नापी,
     सड़कों की लम्बाई ।   
    सरकारें बदली, 
    हिसाब आया-गया,
    क्यों किसी ने,
     जिम्मेदारी नहीं उठाई,
    दोषी मैं हूँ, 
    दोषी आप, 
    बाकी सब पीर पराई ।

     कविता : उस रोज़ 

    तेरी नज़रों से नज़रें क्या मिली,
    हम तो ईमा से गये।
    जो मिलें कभी लबों से लब,
    जाने वह मंज़र क्या होगा।

    जब होंगे साथ, शामों-सहर
    वह आलम खास होगा।
    कहीं गेसू कही आँचल
    छुपा-छुपा सा इक चाँद होगा ।

    गर्म साँसों की वोह खुशबू,
    कायनात को खुदपे नाज़ होगा। 
    वस्ल की रात में, आरज़ू का पहरा,
    बेशक तेरा प्यार बेदाग होगा ।

     कविता : सनम बेवफा 

    उसकी फितरत भी कहाँ, 
    मौसम से जुदा है,
    इस पल मोहब्बत, 
    उस पल सदा है।
    आरज़ू तू भी, 
    मुझसे रूठ कर जाती क्यों नहीं,
    अब मेरे पास तेरे लिए रखा ही क्या है। 
    एक दिन दूँगी तुझे में, 
    ज़ख़्मी दिल लाकर, 
    मेरी सौगात पहली, 
    तुझसे आखरी इल्तिजा है। 
    खुद को बदनसीब कहूँ, 
    या उसे फरेबे दिल,
    वोह मेरा खुदा है, 
    पर न जाने क्यों जुदा है।

     कविता : कोई शिकवा नहीं 

    तेरी मद भरी आखोँ में,
    डूबे है हम भी।
    न है शिकवा की तुम भी,
    किस किस का सहारा बनोगी।
    तेरे अधरोँ की अंगूरी,
    के प्यासे है हम भी।
    न है शिकवा की तुम भी,
    किस किस की साकी बनोगी।
    तेरे चेहरे से,
    कुछ यूँ छलके है शबाब।
    न है शिकवा की तुम भी,
    कब तक संभाला करोगी।
    वीरान हैं दिल,
    रुकी रुकी हैं धड़कन।     
    न है शिकवा की तुम भी,
    किस किस की धड़कन बनोगी।
    बेसुद है जिस्म,
    बेजान है लब।
    न है शिकवा की तुम भी,
    किस किस की दवा बनोगी।
    तुझी से दुआ है,
    तुझी से है फरियाद।
    न है शिकवा की तुम भी,
    किस किस का खुदा बनोगी।
    बंद कर ली पलकें,
    तुम आओगी खाबों में।
    न है शिकवा की तुम भी,
    किस किस का सपना बनोगी।
    तेरे इंतज़ार में,
    पथरा गई हैं आँखे।
    न है शिकवा की तुम भी,
    किस किस से जा कर मिलोगी।
    खत्म होने को है,
    जिंदगी का सफर।
    न है शिकवा की तुम भी,
    किस किस की मंज़िल बनोगी।

     कविता : ख्वाहिश 

    मेरी ख्वाहिशों का क़र्ज़,
    जो तेरे होठोँ पे था;
    तेरी आदाओं से, 
    अदा हो गया। 
    तेरे गालों को आज,  
    छुआ जो मैंने; 
    कई जन्मों का तेरे,
    मैं कर्ज़दार हो गया।
    बंद आँखे तेरी,
    कुछ ऐसी लग रही थी; 
    जैसे समंदर कोई, 
    पलकों से ढक गया।
    तेरी गरम सासों में,
    मेरे गुनाह जल गए;
    आज मैं इंसान से,
    फरिश्ता हो गया।
    तेरे चेहरे से आज,
    गिरा जो निक़ाब;
    मनो चाँद कोई,
    बाँहों में आ गया।
     

     कविता - गृहस्थ आश्रम 

    सपत्नीक होने से, 
    संतान उत्पन्न होती है।
    संतान से वात्सल्य, 
    वात्सल्य से लालसा।
    लालसा से लालच, 
    लालच से सूनापन।
    सूनेपन से निराशा, 
    निराशा से नीरसता।
    नीरसता से वैराग्य, 
    वैराग्य से सिथिर मन।
    सिथिर मन से शून्यता, 
    शून्यता से दिव्यता।
    दिव्यता से मोक्ष, 
    मोक्ष मिलने से आनंद।
     सत्य ही कहा है,
    ग्रस्हथी आश्रम ही तो है।

     कविता - सुमिरन 

    माकन बदलने से, 
    सामान नहीं बदल जाता,
    सामान बदलने से, 
    घर बदल जाता है।
    घर बदलने से, 
    यादें नहीं बदल जाती,
    यादें बदलने से, 
    इंसान बदल जाता है।
    इंसान बदलने से, 
    मंज़िल नहीं बदल जाती,
    मंज़िल बदलने से, 
    रास्ता बदल जाता है।
    रास्ता बदलने से, 
    सुमिरन नहीं बदल जाता, 
    सुमिरन बदलने से, 
    जीवन बदल जाता है।
       

     कविता - घिनौनी स्मृति 

    गुलाब से बारूद की, 
    गंध आ रही है,
    चमन को आज, 
    वीरानियाँ खा रही है ।
    इंसान कम ही दिखाई, 
    देते है आज कल,
    लोहे से ढकी इंसान की, 
    परछाई आ रही है ।
    बंदूकों और तोपोँ से, 
    लोरियां सुन,
    लोहे के पलने में जूल रहा, 
    आज है बचपन ।
    कुछ सरहद पर, 
    कुछ घर-हद पर,
    खत्म होती जवानी।
    बुढ़ापे तक जी सका जो कोई,
    वह तप में है - ताप के ।
    व्यस्त है मानव आज, 
    ऐसे संसार की रचना में,
    जिसमे न चलेगी साँस कोई, 
    न शोषक की, 
    न शोषित की ।
    की एक बार फिर लगता है, 
    इंसान को शायद,
    गुफाओं में जीने की
     स्मृति हो आई ।

     कविता : कर पुनर्निर्माण देश का 

     हे अणुबमों के निर्माता, 
    कर काबू में अब यह मस्तिक्ष;
    क्यों रक्त पान से समझे,
     तू खुद को विकसित । 
    के जीव जगत के प्राणी, 
    क्यों बना तू अपनोँ का दुश्मन,
    क्यों भर रहा रगोँ में ज़हर 
    और फैला रहा वायु प्रदूषण ।
    देख तंग आकर तुझसे, 
    अश्रु बहा रही यह अवनि;
    इससे होता भयंकर विनाश, 
    रोक इसे कर सृष्टि का विकास ।
    कुरूप, कुपात्र त्याग यह कुकर्म, 
    छोड़ कुचैला कठोर कुढंग,
    सुसंगठित हो, दिखा एकता, 
    कर पुनर्निर्माण देश का ।

     कविता - मैं योग हूँ, मैं योगा नहीं 

    मैं पुरुषार्थ हूँ, मैं प्रतिभा नहीं;
    मैं उन्मुक्त हूँ, मैं धर्मादीन नहीं;
    मैं मार्ग हूँ, मैं मायाजाल नहीं ।

     मैं सरला हूँ, मैं सरल अर्थ नहीं;
    मैं दिव्या हूँ, मैं मिथ्या नहीं;
    मैं योग माया हूँ, अहंकार नहीं ।

     मैं योगिता हूँ, मैं भोग्या नहीं;
    मैं दामिनी हूँ, मेरा दाम नहीं;
    मैं सविता हूँ, मैं सूर्य नहीं ।

    मैं हुंकार हूँ, मैं शब्द नहीं;
    मैं बीज हूँ, मैं विस्तार नहीं;
    मैं वेग हूँ, मैं मर्यादा नहीं ।

    मैं मौज हूँ, मैं मार्जन नहीं;
    मैं कारण हूँ, मैं काल नहीं;
    मैं परोक्ष हूँ, मैं उद्धघोष नहीं ।

    मैं ज्ञान हूँ, मैं माया जाल नहीं;
    मैं विवेक हूँ, मैं विज्ञान नहीं;
    मैं विद्या हूँ, मैं विधाता नहीं ।

    मैं पारा हूँ, मैं पराजित नहीं;
    मैं संगनी हूँ, मैं सखी नहीं;
    मैं स्वामिनी हूँ, मैं स्वामी नहीं ।

    मैं मूर्क्षित हूँ, मैं मृत नहीं;
    मैं संकल्प हूँ, मैं सौगंध नहीं;
    मैं उल्लास हूँ, मैं परिहास नहीं ।

    मैं गुह्य हूँ, मैं विख्यात नहीं;
    मैं सुगंघ हूँ, मेरा सौजन्य नहीं;
    मैं क्रिया हूँ, मैं कीर्ति नहीं ।

    मैं सात्विक हूँ, मुझमें लज्जा नहीं;
    मैं राजसिक हूँ, मुझमें सौन्दर्य नहीं;
    मैं तामसिक हूँ, मुझमें तृष्णा नहीं ।       

    मैं महाप्राण हूँ, मैं प्राण नहीं;
    मैं चिरंजीव हूँ, मेरी आयु नहीं;
    मैं शास्वत हूँ, मेरा अंत नहीं ।

    Post a Comment

    0 Comments